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नफरत की ताकत...

 आज पूरे विश्व की निगाह जब भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव पर टिकी हो तब हमारे नेताओं की भाषा ने भारत की पहचान बनाने की जो कोशिश की है वह बेहद शर्मनाक है। किसने किसे गाली दी, किसने किसे छोड़ दिया इस पर चल रही प्रतिस्पर्धा के बीच भाषा की मर्यादा ही नहीं बची है।  गांधी के इस देश में इस बार के चुनाव में सारी मर्यादाएं लांघ दी जायेगी इसका संकेत तो पहले ही मिलने लगा था। लेकिन तब कौन जानता था कि सत्ता संघर्ष के इस महाभारत में सब कुछ समाप्त कर दिये जाने की तैयारी कर ली गई है। हालांकि नफरत की ताकत को हर बार प्यार के सामने झुकना पड़ा है इसलिए संसद में जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गले लगाते हुए जब कहा कि आप गाली देते रहो हम तो प्यार करते रहेंगे तो कुंभर नारायण की कविता की वह पंक्ति कईयों के जेहन मे रही होगी- टक अजीब सी मैं दूं इन दिनों मेरी भरपूर नफरत करने की ताकत दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही है  अंग्रेजो से नफरत करना चाहता जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया तो शेम्स पीयर आड़े आ जाते जिनके मुझपर न जाने कितने अहसान है मुसलमानों से नफरत करने चलता तो सामने गालिब आकर खड़े हो जाते अब आप

जनतंत्र को हड़पने की कोशिश

जनतंत्र को हड़पने की कोशिश... (विशेष प्रतिनिधि लोकसभा का चुनाव अपने ऊफान पर है और सरकार बनाने में आने वाली दिक्कतों को लेकर बहस शुरू हो गई है। ऐसे में इस चुनाव के दौरान आम जनमानस के बुनियादी मुद्दों को छोड़ सभी दलों ने जनतंत्र की हत्या की जो कोशिश की है वह किसी से छिपा नहीं है। भाषा की मर्यादा का तो कोई मतलब ही नहीं रह गया है लेकिन सवाल यह है कि मोदी सरकार की वापसी नहीं हुई तब क्या होगा? हिन्दूत्व की आड़ में जनतंत्र को हड़पने का खेल क्या दूसरे सहारे से शुरू होगा?  मौजूदा परिस्थितियां बतलाती है कि यह चुनाव तो आम लोगों के लिए लड़ा ही नहीं जा रहा है। राष्ट्रवाद हिन्दू मुस्लिम और हिन्दूत्व से होते हुए यह चुनाव अभ्रदता, झूठ पर जा टिका है। तब भला आम जनमानस इस चुनाव में क्या करें। 2014 में सत्तासीन मोदी सरकार ने जिस तरह से एक के बाद एक संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा करने की कोशिश की उसके बाद तो यह साफ होने लगा कि गांधी नेहरू पटेल सुभाष चंद्र बोस और मौलाना अब्दुल कलाम ने जिस सामाजिक सौहार्द की नींव रखकर देश को अब तक प्रगति के पथ पर ले जाया जा रहा था उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की गई जिसके च

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फ़ैसले की वजह

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फ़ैसले की वजह कोई सोच भी नहीं सकता था कि फ़ैसला ऐसा आएगा , लेकिन फ़ैसला तो आ ही गया था । इस फ़ैसले ने कितने ही लोगों की नींद उड़ा दी । हलाकान कर देने वाली गर्मी में इस फ़ैसले का क्या मतलब हो सकता था , जो लोग सोचते थे मोदी की वापसी किसी भी हाल में नहीं होगी उनका अंक गणित धरा का धरा रह गया। ख़ुद भाजपा ए जो लोग नाउम्मीद पाले बैठे थे, वे भी इस कथित करिश्माई जीत से हैरान थे । जिस बंगाल और उड़ीसा से सत्ता की जादुई आँकड़े की भरपाई की उम्मीद की जा रही थी, उसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हाँ, लेकिन उड़ीसा बंगाल भी फ़ैसले के साथ थे । फ़ैसले को लेकर लोकतंत्र में सवाल उठाना ही ग़लत मान लिया गया है , इसलिए इस फ़ैसले पर सवाल उठाने से पहले ही भक्तों ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया था। हालत यह हो गई कि हिजड़े तक पर्दा करने लग गए । एक डर और नाउम्मीदी के बीच आए इस फ़ैसले की वजह क्या हो सकती है? सबके अपने दावे है , लेकिन खुलकर कहने के एतराज़ ने लोकतंत्र के इस सबसे बड़े देश में भविष्य के ख़तरे की ओर आगाह तो कर ही दिया है। जीत एक ऐसा उन्माद है जो विरोधियों को बर्फ़ कर दे, लेकिन कभी न कभी तो इस फ़ैसले की वजह ढू

फ़ैसला -2

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फैसला। फैसला तो आया लेकिन ऐसा फैसला जिस पर खुद भाजपा समर्थकों व सत्ता में बैठे लोगों को भरोसा नहीं हो रहा था। वे यह जान तो रहे थे कि किस चतुराई से तमाम रंगो में से केसरिया और हरा को उभार दिया गया था कि बाकी रंग झूठ और अफवाह के बादल तले दब जाये। देश को दो रंगा करने की कोशिश एक बार फिर सफल हो गया था। यह वक्त यह सवाल पूछने का नहीं है कि यह दो रंग हमेशा रहेगा। सवाल तो यह है कि अदृश्य सतरंगी तो सफेद था जिस पर दोनों रंगो को जोड़कर रखने का माद्दा था वह कैसे छूट गया। और यदि उसे जानबुझकर हटा दिया जायेगा तो क्या लोकतंत्र बेरंग नहीं हो जायेगा। जहां भी वह अदृश्य सतरंगी नहीं है वहाँ के हालात क्या है? क्या सिर्फ दो रंगो के सहारे ही लोकतंत्र जिन्दा रह पायेगा। लेकिन वर्तमान का सच तो यही है कि इन दो रंगों के सहारे ही लोकतंत्र को मजबूत बनाने के भ्रम को जिन्दा रखने की कोशिश की जा रही है। आप किसी को एक बार और बहुत हुआ तो दो बार ही बेवकुफ बना सकते हैं। बार-बार बेवकूफ आप नहीं बना सकते। ऐसे में जब एक बार फिर यह फैसला आया है तब क्या आने वाले वक्त में स्वयं को साबित करना चुनौती नहीं होगा? इस देश के लोकतंत्र

फ़ैसला

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फैसला फैसला आ गया था और फैसला जनता ने किया था इसलिए 23 मई 2019 के इस फैसले को सबको स्वीकार करना ही था। उन लोगों को भी जो जनता के फैसले में इंसाफ ढूंढते है और उन्हें भी जो राजनीति में सुचिता, चाल-चेहरा और चरित्र को प्रमुखता देते है। दरअसल लोकतंत्र में जीत का मतलब संख्या बल है और संख्याबल नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा था। पूरी हिन्दी पट्टी में कांग्रेस के पास उंगलियो में गिन सकने वाली जबकि देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल पाया। खुद राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी मानी जानी वाली अमेठी सीट हार गये थे तो सरकार होने के बावजूद राजस्थान में उसे कुछ नहीं मिला था। हिन्दी पट्टी में भाजपा की जीत ऐतिहासिक है। मोदी के जादू ने दूसरे राजनैतिक दलों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। खतरा । खतरा तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर भी मंडराने लगा है। नाथूराम गोडसे की जय बोलने वाले साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर दोनों चुनाव जीत गए हैं। यह चुनाव जिस तरह से जंग में बदल चुका था उसके परिणाम इसी तरह ही आने थे। प्रज्ञा ठाकुर के जीत जाने के बाद क्या अब भाजपा ने जो नोटिस उन्हें दी है उसका कोई मायने

बदलाव

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बदलाव... यह वक्त घड़ी की सुईयों को उल्टा घुमाने का भी है क्योंकि दो हजार चौदह में भाजपा को जो सत्ता मिली थी उसकी प्रमख वजह अन्ना-बाबा द्वारा कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया हुआ आन्दोलन भले रहा हो लेकिन भाजपा की जीत में प्रमुख भूमिका निभाने में वे लोग भी थे जो भारतीय जनता पाटी का चेहरा बन चुके थे। इनमें लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, शत्रुघन सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू, अरूण शौरी, रमेश बैस, यशवंत सिंहा, कलराज मिश्र, शांता कुमार, मनोहर पर्रिकर जैसे और भी दर्जनों नाम थे जो या तो देश में भाजपा के चेहरे थे या अपने अपने प्रदेश में। इन चेहरों का प्रभाव से इंकार करने का मतलब क्या होना चाहिए और ये चेहरे दो हजार उन्नीस में क्यों नहीं चुनाव लड़ रहे हैं। दरअसल मोदी ने जब सत्ता संभाली तो उनके सामने पाटी के भीतर भी बड़ी चुनौती थी क्योंकि मोदी पहली बार केन्द्र की राजनीति में आये थे जबकि इससे पहले इन तमाम लोगों ने केन्द्र की राजनीति में अपने को स्थापित कर चुके थे। ऐसे में इनकी सरकार को लेकर कोई भी बात महत्वपूर्ण मानी जाती थी और असंतुष्ट सांसदों का जमावड़ा भी