बदलाव

बदलाव...
यह वक्त घड़ी की सुईयों को उल्टा घुमाने का भी है क्योंकि दो हजार चौदह में भाजपा को जो सत्ता मिली थी उसकी प्रमख वजह अन्ना-बाबा द्वारा कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया हुआ आन्दोलन भले रहा हो लेकिन भाजपा की जीत में प्रमुख भूमिका निभाने में वे लोग भी थे जो भारतीय जनता पाटी का चेहरा बन चुके थे।
इनमें लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, शत्रुघन सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू, अरूण शौरी, रमेश बैस, यशवंत सिंहा, कलराज मिश्र, शांता कुमार, मनोहर पर्रिकर जैसे और भी दर्जनों नाम थे जो या तो देश में भाजपा के चेहरे थे या अपने अपने प्रदेश में।
इन चेहरों का प्रभाव से इंकार करने का मतलब क्या होना चाहिए और ये चेहरे दो हजार उन्नीस में क्यों नहीं चुनाव लड़ रहे हैं।
दरअसल मोदी ने जब सत्ता संभाली तो उनके सामने पाटी के भीतर भी बड़ी चुनौती थी क्योंकि मोदी पहली बार केन्द्र की राजनीति में आये थे जबकि इससे पहले इन तमाम लोगों ने केन्द्र की राजनीति में अपने को स्थापित कर चुके थे। ऐसे में इनकी सरकार को लेकर कोई भी बात महत्वपूर्ण मानी जाती थी और असंतुष्ट सांसदों का जमावड़ा भी इन्हीं के पास होता था।
यह मोदी सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा करने लगा था। इसलिए नरेन्द्र मोदी ने सरकार बनते ही संगठन और सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए दो उपाय किये। पहला उपाय था पाटी अध्यक्ष की कुर्सी पर अपने पुराने गुजराती साथी अमित शाह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया। चूंकि इस समय पाटी के भीतर और जनमानस में मोदी का जादू चल रहा था इसलिए तमाम दिग्गज दावेदारों के बाद भी अमित शाह की ताजपोशी आसानी से हो गई जबकि दूसरा उपाय दिग्गजों को किनारे करने का था। इसलिए पाटी ने एक मार्गदर्शक मंडल बनाया और उसमें आडवानी, जोशी सहित कई दिग्गजों को बैठा दिया। दरअसल यह मार्गदर्शक मंडल बनाने का ध्येय ही वरिष्ठों को किनारे लगाना था और पाटी में अपनी पकड़ ही मजबूत करनी भर नहीं थी बल्कि पाटी को अपने हिसाब से चलाना भी था।
इधर अमित शाह भी नई टीम बना रहे थे और उसकी टीम पर भी आपत्ति करने का मतलब अपनी छिछालेदर कराना था। क्योंकि कुछ मुद्दों को लेकर आडवानी, जोशी ने सवाल उठाये थे तो पाटी कार्यकर्ताओं ने उन्हें सोशल मीडिया में खलनायक घोषित करने में कोई कमी नहीं की थी।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह से पाटी में अपनी पकड़ मजबूत करते हुए पाटी के आम कार्यकर्ताओं में जो
विश्वास भरा था उसके बाद तो वे जैसा चाहते थे वैसा करते थे और अब तक पाटी का चेहरा रहे तमाम नेता मुंह बंद कर चुपचाप सब देखते रहे और जो लोग नहीं देख पाये उनके लिए पाटी में जब रहना असहनीय हो गया तो भाजपा छोड़कर दूसरी पाटी में चले गए। राज्यों में लगातार चुनाव जीतने की वजह से मोदी शाह की जोड़ी भाजपा कार्यकर्ताओं के हीरो थे जबकि उन पर सवाल करने वाले या तो देशद्रोही घोषित किया जा रहा था या उनकी जमकर छिछालेदर की जाती थी।
सवाल यह नहीं है कि दो हजार उन्नीस आते आते इस देश ने क्या खोया क्योंकि सामाजिक ताना बाना या  संवैधानिक संस्थाओं पर विश्वास का संकट का जिक्र हम पहले भी कर चुके है और न ही सवाल इसकी भी होनी चाहिए कि मोदी शाह की जोड़ी ने राजनैतिक रूप से क्या खोया। क्योंकि राज्यों में लगातार भाजपा जीतती रही है। ऐसे में सवाल इस बात का होना चाहिए कि इस सफर में भाजपा को क्या मिला और उसने क्या खोया।
यह सवाल इसलिए भी उठाया जाना चाहिए क्योंकि इस सफर में भारतीय जनता पार्टी में बहुत कुछ बदला है। मोदी मैजिक ने कार्यकर्ताओं की कार्यशैली को कमतर किया है और संगठन भी छिन्न भिन्न हुआ है। संगठन का काम कई राज्यों में निजी कंपनियों ने संभाल रखी है। बिल्कुल कार्पोरेट सेक्टर की तरह चुनाव में काम करने की शैली अपनाई गई, मतदान पर्ची से लेकर प्रचार सामग्री घर घर पहुंचाने का काम कार्यकर्ताओं की बजाय निजी कंपनियों को सौंपा जाने लगा है।
भाजपा कार्यालयों का भी कापोरेट हाउस या भव्य होटलों की तरह कायाकल्प किया गया और सादगी की जगह भौतिकता को सर आंखो पर चढ़ाया गया। आईटीसेल के काम को भी वेतनभोगियों को सौंप दिया गया। यही नहीं भाजपा कार्यालय में जिम्मेदारी कार्यकर्ताओं की बजाय वेतनभोगियों के हवाले कर दिया गया जो मीडिया से जुड़े लोगों को इंटरटेन भी करते थे प्रोफेशनल तरीके का इस्तेमाल करते थे। मानों भारतीय जनता पाटी कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो गयी है जहां काम करने वाले सभी वेतनभोगी है और पाटी की रीति नीति निर्धारित करने की बजाय संगठन के दिशा निर्देश का अक्षरस: पालन किया जायेगा।
राज्य इकाईयों या कार्यालयों से होते यह सब जिला स्तर तक आ पहुंचा और कार्यकर्ताओं का काम पाटी की बजाय अपने पसंद के उम्मीदवारों के लिए या तो काम करना है या अपा काम धाम देखते हुए पाटी निर्देश हो तो कुछ कर लें।
भाजपा ने जिस तरह के संसाधनों को अपनाया है वह अटल युग से बिल्कुल अलग है। अटल युग में सत्ता प्राप्ति का मार्ग नरम पंथी का था लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने उससे सबक लेकर अलग साख अख्तियार किया। यानी हिन्दुत्व में भी आरएसएस के हिन्दुत्व की बजाय सावरकर के तीखे या गरम हिन्दुत्व को अपनाया है यही वजह है कि वह प्रज्ञा ठाकुर को टिकिट देने से भी परहेज नहीं करते है। उसके लिए राजनीति साधन नहीं है बल्कि अपने एजेंडा लागू करने का एकतरफा रास्ता है और इसके लिए उसका चालचेहरा चरित्र या राजनैतिक सुचिता भी जरूरी नहीं है। बल्कि वह तमाम हथकंडे ही प्रमुख हथियार है जो नैतिकता के पैमाने से ईतर है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह से दिग्गजों को किनारे किया उससे साफ है कि पाटी के लिए कोई भी बोझ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता यदि आज उपयोगी है वहीं साथ चलेंगे अन्यथा किसी को सिर्फ पिछले योगदान के कारण पाटी ढोने तैयार नहीं है।
अभी नहीं तो कभी नहीं की इस कार्यशैली के चलते ही कार्यकर्ताओं का विश्वास ही नहीं जीता गया बल्कि यह उम्मीद भी बढ़ी की जीत के आगे कुछ नहीं है। और यही नरेन्द्र मोदी की वर्तमान उपलब्धि है। यही वजह है कि बदलते भारत को समझते हुए जो बदलाव भाजपा में हुए उसे लेकर पाटी के भीतर तमाम नाराजगी के बावजूद भाजपा समर्थकों में उत्साह है।
बदला तो राष्ट्रीय सेवक संघ भी है वह पूरी तरह भाजपा होती चली गई और संघ के भीतर सरकार वाले हिन्दू मजबूत होता चला गया। आने वाले वक्त में यह सावरकर वाला हिन्दू और कितना प्रभावी होगा? होगी भी की नहीं इसका जवाब अभी देना मुश्किल है।
दो हजार चौदह के बाद सबसे बड़ा बदलाव तो मीडिया में हुआ या किया गया। मीडिया पर नेपोलियन बोनापार्ट के कहे गये नुस्खे अपनाये गए कहा जाए तो गलत नहीं होगा. नेपोलियन बोनापार्ट ने एक बार कहा था कि सत्ता में बने रहने के दो ही मंत्र है एक डर और दूसरा लाभ। इस मंत्र को मोदी सरकार ने मीडिया के साथ पूरी तरह निभाया। कल्पना कीजिए की यदि मीडिया अपनी भूमिका ईमानदारी से निभा रहा होता या इस मंत्र के जद में काम नहीं करता तो नरेन्द्र मोदी सरकार का क्या होता।
अन्ना-बाबा आन्दोलन के दौरान ही यह साफ हो गया था कि मीडिया की भूमिका ने कांग्रेस सरकार की फजिहत कर दी है। कैंग की रिपोर्ट में मीडिया की भूमिका ने ही मनमोहन सरकार को धो डाला था और कांग्रेस की इस बुरी गत में मीडिया की भूमिका सबसे मजबूत विपक्ष की रही।
मोदी सरकार ने जिस तरह से मीडिया ही नहीं बाकी संवैधानिक ढांचे को भी डर और लाभ के मंत्र से साधा? लेकिन क्या यह हमेशा चलेगा। कहना कठिन है।
बदलाव के इस दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी स्वयं को बदलाव के साथ जोड़े रखा। गरीब चाय वाले से लेकर चौकीदार और फिर 35 साल तक भिक्षा मांग के खाने से लेकर केदारनाथ में साधना करते तक बदलते रहे।
यही नहीं समर्थक भी कार्यकर्ता से लेकर भक्त तक बन गये। ये अपनी तरह का अनूठा बदलाव था जिसका परिणाम क्या होगा कहा मुश्किल है।

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