जनतंत्र को हड़पने की कोशिश

जनतंत्र को हड़पने की कोशिश... (विशेष प्रतिनिधि लोकसभा का चुनाव अपने ऊफान पर है और सरकार बनाने में आने वाली दिक्कतों को लेकर बहस शुरू हो गई है। ऐसे में इस चुनाव के दौरान आम जनमानस के बुनियादी मुद्दों को छोड़ सभी दलों ने जनतंत्र की हत्या की जो कोशिश की है वह किसी से छिपा नहीं है। भाषा की मर्यादा का तो कोई मतलब ही नहीं रह गया है लेकिन सवाल यह है कि मोदी सरकार की वापसी नहीं हुई तब क्या होगा? हिन्दूत्व की आड़ में जनतंत्र को हड़पने का खेल क्या दूसरे सहारे से शुरू होगा?  मौजूदा परिस्थितियां बतलाती है कि यह चुनाव तो आम लोगों के लिए लड़ा ही नहीं जा रहा है। राष्ट्रवाद हिन्दू मुस्लिम और हिन्दूत्व से होते हुए यह चुनाव अभ्रदता, झूठ पर जा टिका है। तब भला आम जनमानस इस चुनाव में क्या करें। 2014 में सत्तासीन मोदी सरकार ने जिस तरह से एक के बाद एक संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा करने की कोशिश की उसके बाद तो यह साफ होने लगा कि गांधी नेहरू पटेल सुभाष चंद्र बोस और मौलाना अब्दुल कलाम ने जिस सामाजिक सौहार्द की नींव रखकर देश को अब तक प्रगति के पथ पर ले जाया जा रहा था उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की गई जिसके चलते सभी संवैधानिक संस्थाएं विवादों में आ गई। संसद में विरोधियों को सम्मान देना बंद कर दिया गया, न्यायपालिका को प्रेस कांफ्रेस लेना पड़ा। कुलपतियों को इस्तीफा देना पड़ा, सीबीआई की लड़ाई सड़क पर आ गई। सांख्यिकी विभाग को आंकड़े देने से रोक दिया गया और आरबीआई का रिजर्व फंड को सरकार हड़पने की कोशिश में लग गई। ऐसे में सवाल यह भी उठना स्वाभाविक है कि क्या यह सब मोदी सरकार के पांच सालों में ही हुआ। सवाल यह नहीं है कि इस चुनाव में जनता से जुड़े मुद्दे क्यों गायब है। सवाल यह है कि आखिर देश की दिशा क्या होनी चाहिए। क्या हिन्दूत्व का राग अलापकर इस देश में रहने वाले दूसरे धर्म के 25 करोड़ से अधिक आबादी को हाशिये पर डाला जा सकता है।  पिछले पांच सालों में जिस तरह से भारतीय इतिहास को बदलने की कोशिश हुई वह हैरान कर देने वाला था। इस कोशिश के चलते हमारे सामाजिक ताने बाने को जो क्षति हुई उसकी भरपाई आने वाली सरकार कैसे कर पायेगी और इस क्षति के चलते न केवल राष्ट्र की प्रगति पर बाधा आई है बल्कि सामाजिक सौहाद्र्र भी कमजोर हुआ है।  चुनाव में अमर्यादित भाषा की वजह सत्ता संघर्ष के साथ एक तरफ कापोरेट घराने का मोह है तो दूसरी तरफ किसान बेरोजगार है तब फिर इस हालात में आम आदमी कहां है। क्या वह राष्ट्रवादी हिन्दूत्व के सहारे अपने व अपने परिवार का पालन पोषण कर पायेगा। सवाल यह भी नहीं है कि इस चुनाव के बाद किसकी सत्ता होगी। बल्कि सवाल तो यह है कि यदि इस चुनाव के बाद मोदी की सत्ता नहीं रही तब भाजपा का क्या होगा? क्या तब भी नरेन्द्र मोदी की पाटी में पकड़ कायम रहेगी? क्योंकि चंदे को लेकर भाजपा की जो रीति नीति रही है उससे यह तो तय है कि पूंजी की सारी जानकारी मोदी शाह के पास है और पाटी चलाने के लिए जब पूंजी ही महत्वपूर्ण हो चली है तब भले ही सत्ता चली जाए लेकिन पाटी पर पकड़ नरेन्द्र मोदी के बरकरार रहेगी। इस चुनाव में जिस तरह से सभी राजनैतिक दलों ने भाषा की मर्यादा को तार-तार तो किया ही है सत्ता में पकड़ मजबूत बनाये रखने वे सारे जतन किये गये जिससे आम आदमी को प्रभावित करके वोट हासिल किया जा सके। यानी मौजूदा हालात में पाटी का घोषणापत्र तक हाशिये में चला गया और आदर्श आचार संहिता को लापरवाही से तोड़ा गया। चुनाव आयोग की कई मामले में खामोशी भी साफ संकेत दे रहा था कि ताकतवर के खिलाफ कार्रवाई करना आसान नहीं है। एैसे में जनतंत्र की हत्या की कोशिश की बात हो या पूरे जनतंत्र को ही हड़प लेने की कोशिश को लेकर आम जनता तो ठगा ही गया। तब भला क्या यह मान लिया जाए कि चुनाव के बाद यदि किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो पूरी पाटी ही खरीद लेने का इंतजाम कर लिया जायेगा? 

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