फ़ैसला -2
फैसला। फैसला तो आया लेकिन ऐसा फैसला जिस पर खुद भाजपा समर्थकों व सत्ता में बैठे लोगों को भरोसा नहीं हो रहा था। वे यह जान तो रहे थे कि किस चतुराई से तमाम रंगो में से केसरिया और हरा को उभार दिया गया था कि बाकी रंग झूठ और अफवाह के बादल तले दब जाये।
देश को दो रंगा करने की कोशिश एक बार फिर सफल हो गया था। यह वक्त यह सवाल पूछने का नहीं है कि यह दो रंग हमेशा रहेगा। सवाल तो यह है कि अदृश्य सतरंगी तो सफेद था जिस पर दोनों रंगो को जोड़कर रखने का माद्दा था वह कैसे छूट गया। और यदि उसे जानबुझकर हटा दिया जायेगा तो क्या लोकतंत्र बेरंग नहीं हो जायेगा। जहां भी वह अदृश्य सतरंगी नहीं है वहाँ के हालात क्या है? क्या सिर्फ दो रंगो के सहारे ही लोकतंत्र जिन्दा रह पायेगा। लेकिन वर्तमान का सच तो यही है कि इन दो रंगों के सहारे ही लोकतंत्र को मजबूत बनाने के भ्रम को जिन्दा रखने की कोशिश की जा रही है।
आप किसी को एक बार और बहुत हुआ तो दो बार ही बेवकुफ बना सकते हैं। बार-बार बेवकूफ आप नहीं बना सकते। ऐसे में जब एक बार फिर यह फैसला आया है तब क्या आने वाले वक्त में स्वयं को साबित करना चुनौती नहीं होगा? इस देश के लोकतंत्र की खुबसूरती अनेकता में एकता में है। विभिन्न जाति, धर्म, बोली-भाषा के रंग ही इस देश का असली रंग है अन्यथा लोग तो काले-गोरे पर मारने कांटने आमदा है।
यह भूल कभी नहीं करना चाहिए कि लोगों के जेहन में आज जो कुछ चल रहा है वह हमेशा चलता रहेगा। लोगों के जेहन में क्या चल रहा है यह न कोई जान सकता है और न ही कोई बता सकता है।
एक रूसी लेखक निकोलाई के नाटक खुदकुशी की एक लाईन में -सिर्फ मुर्दे ही बता सकते है कि जिन्दा लोगों के जेहन में क्या चल रहा है।
जेहन में सत्ता के भीतर भी बहुत कुछ चल रहा होगा? इस फैसले के बाद उसे अटल जी की वह कविता भी जेहन में बिठा लेना चाहिए-
सत्ता का खेल तो चलेगा
सरकारें आयेंगी जायेंगी
पाटिया बनेगी बिगड़ेगी
मगर यह देश रहना चाहिए
इसका लोकतंत्र अमर रहना चाहिए।।
अन्यथा वह अब भी 70 साल में कुछ नहीं हुआ, या विपक्ष उन्हें कुछ करने नहीं दे रहा है। इस देश की वर्तमान परिस्थितियों के लिए नेहरू-गांधी परिवार ही दोषी है ही जेहन में बिठाये रखा तो इस फैसले के परिणाम तले लोकतंत्र का दम घुट ही जायेगा?
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी सत्ता उखाड़ फेंकने महात्मा गांधी ने सत्य का प्रयोग किये थे लेकिन यकीन जानिये कि मौजूदा दौर में सत्ता पर बने रहने के लिए झूठ का प्रयोग किया गया और हमें बताने में जरा भी शर्म नहीं करना चाहिए कि फैसला झूठ के साथ पूरी तरह खड़ा हुआ साफ दिखाई दिया है।
ऐसे में आज महात्मा गांधी को याद इसलिए भी किया जाना चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उस महात्मा के सामने सिर झुकाने राजघाट जाते है उसी नरेन्द्र मोदी की पाटी से प्रज्ञा ठाकुर भी लोकसभा में जाती है जो महात्मा के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताती है। ऐसे में इस फैसले पर क्या कहना चाहिए।
क्या सिर्फ एक कारण से इस फैसले को सिरे से खारिज कर देना चाहिए या दिग्विजय सिंह की आनाकानी का दर्द भी समझना चाहिए? या इसे दुखद घटना मानकर भूल जाना चाहिए लेकिन कितनी घटनाओं को भूल जाये।
क्योंकि जब देश आजाद हुआ तब इस देश में साढ़े नौ करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे थे और आज तैतीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। सरकार का कार्पोरेट मोह किसी से छिपा नहीं है, किसान परेशान है, बेरोजगार हलाकान है, भ्रष्टाचार चरम पर है और सच को झूठ के सहारे जीतने हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है तब फैसले में इंसाफ कहां बचता है और जब इंसाफ ही नहीं होगा तो फिर क्या बचेगा। देश को क्या एक ऐसा दरिया नहीं बनाया जा रहा है जहां मछलियों को फंसाने चारा के रूप में रंगों का सहारा लिया जाता है और रंग के आकर्षित कितनी मछलियां अपने को फंस जाने से रोक पाएगी।
इस दरिया में लोकतंत्र कहां है वह तो दरिया में डूबने लगा है जिसमें उसका दम घुटता है और बाहर झूठ का भ्रम है जो अच्छे दिन का आस लिये सिन्दुरी भ्रम मे जीने की कोशिश कर रहा हैं और इस सिन्दूरी अच्छे दिन दिखाने वालों के आंखों में लोकतंत्र कही नहीं दिखता है लेकिन मछलियां केवल सिन्दूरी नजारे की चाह में फिक्रमंद हो जाती है और यह फैसला आता है। एक डरे हुए मछलियों का फैसला। जो यह नहीं देख पाती कि गणेश जी को दूध पिलाने के भ्रम फैलाने से शुरू हुई बेशर्मी लगातार बढ़ती गई और यह बेशर्मी ही उनका हौसला बढ़ाता रहा। जो ईमेल से लेकर बादल रडार तक पहुंचने के बाद भी समाप्त हो जायेगा कहना मुश्किल है।
लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह से झूठ बोलने का हौसला दिखाया गया और हौसला बुराई से ज्यादा कामयाब चीज साबित हुई।
साबित तो यह भी हुआ कि अब लोगों को न गांधी के विचारधारा से मतलब है और न ही गोडसे के हिसंक विचार से ही
कोई लेना देना है। सिर्फ वहीं मोदी चाहिए जो एक वर्ग विशेष को डरा कर रखे?
डराने की कोशिश तो 1977 में इंदिरा ने भी की थी। आपातकाल को अनुशासन पर्व बताकर लोकतंत्र की गला घोटने की कोशिश तो हुई लेकिन वह जल्द ही जान गई कि इस देश में यह सब नहीं चलेगा। यह गांधी का देश है और यह बात जितनी जल्दी भाजपा जान ले वह उसके लिए भी उतना ही अच्छा होगा?
अच्छा होता फैसला बदला जा सकता। लेकिन फैसला तो हो चुका था। जो बदला नहीं जा सकता था इसलिए इस फैसले पर बधाई देते हुए मोहर लगाने का सिलसिला चल पड़ा। आनाकानी की तमाम गुंजाईश के बाद भी...। फैसले को लेकर आनाकानी की गुंजाईश इस मायने में समाप्त कर दी गई कि जो जीता वह सिकन्दर। इसका मतलब मौजूदा दौर में क्या सत्ता ही महत्वपूर्ण है और चुनाव में जीत-हार ही सब कुछ है। सत्ता की राजनीति में क्या लोकतंत्र को नुकसान नहीं पहुंचा है। इस जीत का मतलब क्या रह जाता है जब देश का हर तीसरा-चौथा आदमी परेशान है लेकिन जीत का जश्न मनाया जा रहा है।
जीत पर जश्न मनाया जाना चाहिए लेकिन क्या देश की मौजूदा परिस्थिति यह ईजाजत देती है कि जीत के जश्न में लड्डू बांटा जाए, मिठाई बांटा जाये, ढोल ढमाके के साथ आतिशबाजी की जाए। यह पैसा कहां से आ रहा है। क्या इस बात पर कोई भरोसा करेगा कि इस चुनाव में राजनैतिक दलों ने सत्ता को जीतने की कोशिश में साढ़े तीन हजार करोड़ रूपये खर्च किये है।
जीत के रटन को देखते हुए इस देश को याद करना चाहिए कि जब देश को आजादी मिली तब महात्मा गांधी कलकत्ता में थे और न केवल उन्होंने नेहरू और पटेल के दूत को जश्न में शामिल होने से इंकार कर दिया था बल्कि कहा भी था कि यह केवल सत्ता का हस्तांरण है देश को आजादी तो तब ही मिलेगी जब आखरी छोर में खड़ा व्यक्ति विकास की राह पर चलेगा।
यह गांधी को गरियाकर नाथूराम का महिमामंडन करने वालों को भी सीखने और सोचने का अवसर देती है कि क्या देश का हर आदमी सत्ता के लिए जीत में जश्न मनाने का अवसर पा लिया है। समाज में हम क्या दिखाना चाहते हैं?
गांधी जी कहा करते ते कि सत्ता से बच के रहे उसके प्रति सचेत रहे क्योंकि सत्ता केवल अपना हित साधती है. 1909 में ब्रिटेन से अफ्रीका जाते हुए इस बात का जिक्र उन्होंने हिन्द स्वराज में किया था कि ब्रिटेन के संसद के भीतर आम लोगों के बुनियादी सवालों पर चर्चा ही नहीं होती। संसद में केवल अपनी सियासत साधने और लूट करने के अलावा कुछ नहीं होता।
क्या गांधी जी के तब की सोच आज सही नहीं दिखाई दे रही है।
आज जब सब कुछ सत्ता है और चुनाव में जीत ही सब कुछ है तब लोकतंत्र कहां है। केवल पांच साल में एक बार वोट देना ही लोकतंत्र रह गया है।
तब एक बात का जिक्र और किया जाना जरूरी है कि बंगाल में जब दंगा फैला और वह गांधी के आव्हान पर रूक गया तब लार्ड माउण्टबेटन ने गांधी जी को पत्र लिखा था और कहा था कि हमारे पास तो 55 हजार की फौज थी लेकिन वह दंगा नहीं रोक सका तब आप दंगा कैसे रोक पाये।
इसके मायने क्या है? गोडसे की महिमामंडन के मायने क्या हैं। गांधी को खारिज करने की कोशिश तो पहले भी होते रही है। तो क्या गांधी को खारिज करने का मतलब सत्य और नैतिकता को खारिज करना नहीं है और इसे ही सही ठहराने क्या पिछले सालों में भ्रम फैलाने का काम तेज नहीं हुआ। आरएसएस का मतलब यदि कुछ लोग REMOUR SPREED SOCIETY. कहते है तो क्यों कहते हैं।
यह सब अचानक नहीं हुआ है जो फैसला आया है उसके पीछे आरएसएस की आजादी के बाद से चलाई जा रही वह मुहिम है जिसे मोदी शाह ने गति दी। इसलिए ईमेल और रडार सहित तमाम झूठ पर जब सवाल उठाये गये तो मोदी समर्थक सिर्फ मुस्कुराते ही नहीं है बल्कि शर्म भी महसूस नहीं करते और इस झूठ को साबित करने तर्क देते है -पहला तर्क राजनीति में सब जायज है। दूसरा यह सच के नजदीक है और तीसरा तर्क था- भगवान भी झूठ बोलते हैं। यकीन कीजिए मैने remour spreed society को गढ़ा नहीं है। यह बाते आरएसएस में रहे एक शख्स ने ही यह बात कही थी वरना विपक्ष तो इसे रायल सीक्रेट सर्विस के नाम से ही बताता रहा है।
अफवाह और झूठ इस कदर लोगों में सच हो जायेगा यह बात कभी हिटलर ने भी कहीं थी कि यदि किसी झूठ को सौ बार बोला जाए तो उसे सच मान लिया जाता है। यानी नेपोलियन बोनापार्ट के डर और लाभ से हिटलर के झूठ को सच की कहानी क्या फिर दोहराई गई है और यह दोहराती भी जाती रहेगी।
पर मैं बीते पांच सालों की बात कह रहा था। आखलाक से लेकर प्रज्ञा ठाकुर तक रोहित वेमुला से लेकर बादल और रडार तक।
हालांकि इसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं लेकिन सच का जिक्र बार बार होना चाहिए। यदि लोग झूठ पर यकीन करने लगे है तो उन्हें सच पर भी यकीन करना होगा। बापू का सत्य पर प्रयोग का मतलब भी यही था।
लेकिन फैसला तो आ ही चुका है और इस फैसले का मतलब पिछले पांच साल के कारनामों को स्वीकारोक्ति कतई नहीं है। क्योंकि फैसला हुआ है इंसाफ नहीं और लड़ाई तो इंसाफ होने तक जारी रहेगी इसलिए बापू ने आजादी के जश्न पर असहमति प्रकट कर इसे सत्ता का हस्तातंरण बताया था और तब से सिर्फ सत्ता का हस्तातरंण हो रहा है। बापू की कुटिया में रोशनी की कोशिश होते रहेगी पर उनका इंकार कायम रहेगा।
और अंत में....
फैसला हो चुका था पांच साल के लिए लेकिन इस फैसले बाद भी उन सवालों के जवाब अभी भी बाकी थे। उन झूठ और अफवाह के बवंडर ने जिस सच को अपने साथ उड़ा ले गया था वह सच आ भी जाये तो इस फैसले पर असर नहीं डालने वाला था। लेकिन लोग मजाक में ही सही यह कहते जरूर सुने गए कि क्या अब इन पांच सालों में भी काम नहीं करने देने के लिए नेहरू जी ही जिम्मेदार होंगे?
देश को दो रंगा करने की कोशिश एक बार फिर सफल हो गया था। यह वक्त यह सवाल पूछने का नहीं है कि यह दो रंग हमेशा रहेगा। सवाल तो यह है कि अदृश्य सतरंगी तो सफेद था जिस पर दोनों रंगो को जोड़कर रखने का माद्दा था वह कैसे छूट गया। और यदि उसे जानबुझकर हटा दिया जायेगा तो क्या लोकतंत्र बेरंग नहीं हो जायेगा। जहां भी वह अदृश्य सतरंगी नहीं है वहाँ के हालात क्या है? क्या सिर्फ दो रंगो के सहारे ही लोकतंत्र जिन्दा रह पायेगा। लेकिन वर्तमान का सच तो यही है कि इन दो रंगों के सहारे ही लोकतंत्र को मजबूत बनाने के भ्रम को जिन्दा रखने की कोशिश की जा रही है।
आप किसी को एक बार और बहुत हुआ तो दो बार ही बेवकुफ बना सकते हैं। बार-बार बेवकूफ आप नहीं बना सकते। ऐसे में जब एक बार फिर यह फैसला आया है तब क्या आने वाले वक्त में स्वयं को साबित करना चुनौती नहीं होगा? इस देश के लोकतंत्र की खुबसूरती अनेकता में एकता में है। विभिन्न जाति, धर्म, बोली-भाषा के रंग ही इस देश का असली रंग है अन्यथा लोग तो काले-गोरे पर मारने कांटने आमदा है।
यह भूल कभी नहीं करना चाहिए कि लोगों के जेहन में आज जो कुछ चल रहा है वह हमेशा चलता रहेगा। लोगों के जेहन में क्या चल रहा है यह न कोई जान सकता है और न ही कोई बता सकता है।
एक रूसी लेखक निकोलाई के नाटक खुदकुशी की एक लाईन में -सिर्फ मुर्दे ही बता सकते है कि जिन्दा लोगों के जेहन में क्या चल रहा है।
जेहन में सत्ता के भीतर भी बहुत कुछ चल रहा होगा? इस फैसले के बाद उसे अटल जी की वह कविता भी जेहन में बिठा लेना चाहिए-
सत्ता का खेल तो चलेगा
सरकारें आयेंगी जायेंगी
पाटिया बनेगी बिगड़ेगी
मगर यह देश रहना चाहिए
इसका लोकतंत्र अमर रहना चाहिए।।
अन्यथा वह अब भी 70 साल में कुछ नहीं हुआ, या विपक्ष उन्हें कुछ करने नहीं दे रहा है। इस देश की वर्तमान परिस्थितियों के लिए नेहरू-गांधी परिवार ही दोषी है ही जेहन में बिठाये रखा तो इस फैसले के परिणाम तले लोकतंत्र का दम घुट ही जायेगा?
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी सत्ता उखाड़ फेंकने महात्मा गांधी ने सत्य का प्रयोग किये थे लेकिन यकीन जानिये कि मौजूदा दौर में सत्ता पर बने रहने के लिए झूठ का प्रयोग किया गया और हमें बताने में जरा भी शर्म नहीं करना चाहिए कि फैसला झूठ के साथ पूरी तरह खड़ा हुआ साफ दिखाई दिया है।
ऐसे में आज महात्मा गांधी को याद इसलिए भी किया जाना चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उस महात्मा के सामने सिर झुकाने राजघाट जाते है उसी नरेन्द्र मोदी की पाटी से प्रज्ञा ठाकुर भी लोकसभा में जाती है जो महात्मा के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताती है। ऐसे में इस फैसले पर क्या कहना चाहिए।
क्या सिर्फ एक कारण से इस फैसले को सिरे से खारिज कर देना चाहिए या दिग्विजय सिंह की आनाकानी का दर्द भी समझना चाहिए? या इसे दुखद घटना मानकर भूल जाना चाहिए लेकिन कितनी घटनाओं को भूल जाये।
क्योंकि जब देश आजाद हुआ तब इस देश में साढ़े नौ करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे थे और आज तैतीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। सरकार का कार्पोरेट मोह किसी से छिपा नहीं है, किसान परेशान है, बेरोजगार हलाकान है, भ्रष्टाचार चरम पर है और सच को झूठ के सहारे जीतने हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है तब फैसले में इंसाफ कहां बचता है और जब इंसाफ ही नहीं होगा तो फिर क्या बचेगा। देश को क्या एक ऐसा दरिया नहीं बनाया जा रहा है जहां मछलियों को फंसाने चारा के रूप में रंगों का सहारा लिया जाता है और रंग के आकर्षित कितनी मछलियां अपने को फंस जाने से रोक पाएगी।
इस दरिया में लोकतंत्र कहां है वह तो दरिया में डूबने लगा है जिसमें उसका दम घुटता है और बाहर झूठ का भ्रम है जो अच्छे दिन का आस लिये सिन्दुरी भ्रम मे जीने की कोशिश कर रहा हैं और इस सिन्दूरी अच्छे दिन दिखाने वालों के आंखों में लोकतंत्र कही नहीं दिखता है लेकिन मछलियां केवल सिन्दूरी नजारे की चाह में फिक्रमंद हो जाती है और यह फैसला आता है। एक डरे हुए मछलियों का फैसला। जो यह नहीं देख पाती कि गणेश जी को दूध पिलाने के भ्रम फैलाने से शुरू हुई बेशर्मी लगातार बढ़ती गई और यह बेशर्मी ही उनका हौसला बढ़ाता रहा। जो ईमेल से लेकर बादल रडार तक पहुंचने के बाद भी समाप्त हो जायेगा कहना मुश्किल है।
लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह से झूठ बोलने का हौसला दिखाया गया और हौसला बुराई से ज्यादा कामयाब चीज साबित हुई।
साबित तो यह भी हुआ कि अब लोगों को न गांधी के विचारधारा से मतलब है और न ही गोडसे के हिसंक विचार से ही
कोई लेना देना है। सिर्फ वहीं मोदी चाहिए जो एक वर्ग विशेष को डरा कर रखे?
डराने की कोशिश तो 1977 में इंदिरा ने भी की थी। आपातकाल को अनुशासन पर्व बताकर लोकतंत्र की गला घोटने की कोशिश तो हुई लेकिन वह जल्द ही जान गई कि इस देश में यह सब नहीं चलेगा। यह गांधी का देश है और यह बात जितनी जल्दी भाजपा जान ले वह उसके लिए भी उतना ही अच्छा होगा?
अच्छा होता फैसला बदला जा सकता। लेकिन फैसला तो हो चुका था। जो बदला नहीं जा सकता था इसलिए इस फैसले पर बधाई देते हुए मोहर लगाने का सिलसिला चल पड़ा। आनाकानी की तमाम गुंजाईश के बाद भी...। फैसले को लेकर आनाकानी की गुंजाईश इस मायने में समाप्त कर दी गई कि जो जीता वह सिकन्दर। इसका मतलब मौजूदा दौर में क्या सत्ता ही महत्वपूर्ण है और चुनाव में जीत-हार ही सब कुछ है। सत्ता की राजनीति में क्या लोकतंत्र को नुकसान नहीं पहुंचा है। इस जीत का मतलब क्या रह जाता है जब देश का हर तीसरा-चौथा आदमी परेशान है लेकिन जीत का जश्न मनाया जा रहा है।
जीत पर जश्न मनाया जाना चाहिए लेकिन क्या देश की मौजूदा परिस्थिति यह ईजाजत देती है कि जीत के जश्न में लड्डू बांटा जाए, मिठाई बांटा जाये, ढोल ढमाके के साथ आतिशबाजी की जाए। यह पैसा कहां से आ रहा है। क्या इस बात पर कोई भरोसा करेगा कि इस चुनाव में राजनैतिक दलों ने सत्ता को जीतने की कोशिश में साढ़े तीन हजार करोड़ रूपये खर्च किये है।
जीत के रटन को देखते हुए इस देश को याद करना चाहिए कि जब देश को आजादी मिली तब महात्मा गांधी कलकत्ता में थे और न केवल उन्होंने नेहरू और पटेल के दूत को जश्न में शामिल होने से इंकार कर दिया था बल्कि कहा भी था कि यह केवल सत्ता का हस्तांरण है देश को आजादी तो तब ही मिलेगी जब आखरी छोर में खड़ा व्यक्ति विकास की राह पर चलेगा।
यह गांधी को गरियाकर नाथूराम का महिमामंडन करने वालों को भी सीखने और सोचने का अवसर देती है कि क्या देश का हर आदमी सत्ता के लिए जीत में जश्न मनाने का अवसर पा लिया है। समाज में हम क्या दिखाना चाहते हैं?
गांधी जी कहा करते ते कि सत्ता से बच के रहे उसके प्रति सचेत रहे क्योंकि सत्ता केवल अपना हित साधती है. 1909 में ब्रिटेन से अफ्रीका जाते हुए इस बात का जिक्र उन्होंने हिन्द स्वराज में किया था कि ब्रिटेन के संसद के भीतर आम लोगों के बुनियादी सवालों पर चर्चा ही नहीं होती। संसद में केवल अपनी सियासत साधने और लूट करने के अलावा कुछ नहीं होता।
क्या गांधी जी के तब की सोच आज सही नहीं दिखाई दे रही है।
आज जब सब कुछ सत्ता है और चुनाव में जीत ही सब कुछ है तब लोकतंत्र कहां है। केवल पांच साल में एक बार वोट देना ही लोकतंत्र रह गया है।
तब एक बात का जिक्र और किया जाना जरूरी है कि बंगाल में जब दंगा फैला और वह गांधी के आव्हान पर रूक गया तब लार्ड माउण्टबेटन ने गांधी जी को पत्र लिखा था और कहा था कि हमारे पास तो 55 हजार की फौज थी लेकिन वह दंगा नहीं रोक सका तब आप दंगा कैसे रोक पाये।
इसके मायने क्या है? गोडसे की महिमामंडन के मायने क्या हैं। गांधी को खारिज करने की कोशिश तो पहले भी होते रही है। तो क्या गांधी को खारिज करने का मतलब सत्य और नैतिकता को खारिज करना नहीं है और इसे ही सही ठहराने क्या पिछले सालों में भ्रम फैलाने का काम तेज नहीं हुआ। आरएसएस का मतलब यदि कुछ लोग REMOUR SPREED SOCIETY. कहते है तो क्यों कहते हैं।
यह सब अचानक नहीं हुआ है जो फैसला आया है उसके पीछे आरएसएस की आजादी के बाद से चलाई जा रही वह मुहिम है जिसे मोदी शाह ने गति दी। इसलिए ईमेल और रडार सहित तमाम झूठ पर जब सवाल उठाये गये तो मोदी समर्थक सिर्फ मुस्कुराते ही नहीं है बल्कि शर्म भी महसूस नहीं करते और इस झूठ को साबित करने तर्क देते है -पहला तर्क राजनीति में सब जायज है। दूसरा यह सच के नजदीक है और तीसरा तर्क था- भगवान भी झूठ बोलते हैं। यकीन कीजिए मैने remour spreed society को गढ़ा नहीं है। यह बाते आरएसएस में रहे एक शख्स ने ही यह बात कही थी वरना विपक्ष तो इसे रायल सीक्रेट सर्विस के नाम से ही बताता रहा है।
अफवाह और झूठ इस कदर लोगों में सच हो जायेगा यह बात कभी हिटलर ने भी कहीं थी कि यदि किसी झूठ को सौ बार बोला जाए तो उसे सच मान लिया जाता है। यानी नेपोलियन बोनापार्ट के डर और लाभ से हिटलर के झूठ को सच की कहानी क्या फिर दोहराई गई है और यह दोहराती भी जाती रहेगी।
पर मैं बीते पांच सालों की बात कह रहा था। आखलाक से लेकर प्रज्ञा ठाकुर तक रोहित वेमुला से लेकर बादल और रडार तक।
हालांकि इसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं लेकिन सच का जिक्र बार बार होना चाहिए। यदि लोग झूठ पर यकीन करने लगे है तो उन्हें सच पर भी यकीन करना होगा। बापू का सत्य पर प्रयोग का मतलब भी यही था।
लेकिन फैसला तो आ ही चुका है और इस फैसले का मतलब पिछले पांच साल के कारनामों को स्वीकारोक्ति कतई नहीं है। क्योंकि फैसला हुआ है इंसाफ नहीं और लड़ाई तो इंसाफ होने तक जारी रहेगी इसलिए बापू ने आजादी के जश्न पर असहमति प्रकट कर इसे सत्ता का हस्तातंरण बताया था और तब से सिर्फ सत्ता का हस्तातरंण हो रहा है। बापू की कुटिया में रोशनी की कोशिश होते रहेगी पर उनका इंकार कायम रहेगा।
और अंत में....
फैसला हो चुका था पांच साल के लिए लेकिन इस फैसले बाद भी उन सवालों के जवाब अभी भी बाकी थे। उन झूठ और अफवाह के बवंडर ने जिस सच को अपने साथ उड़ा ले गया था वह सच आ भी जाये तो इस फैसले पर असर नहीं डालने वाला था। लेकिन लोग मजाक में ही सही यह कहते जरूर सुने गए कि क्या अब इन पांच सालों में भी काम नहीं करने देने के लिए नेहरू जी ही जिम्मेदार होंगे?
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