फ़ैसला
फैसला
फैसला आ गया था और फैसला जनता ने किया था इसलिए 23 मई 2019 के इस फैसले को सबको स्वीकार करना ही था। उन लोगों को भी जो जनता के फैसले में इंसाफ ढूंढते है और उन्हें भी जो राजनीति में सुचिता, चाल-चेहरा और चरित्र को प्रमुखता देते है।
दरअसल लोकतंत्र में जीत का मतलब संख्या बल है और संख्याबल नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा था। पूरी हिन्दी पट्टी में कांग्रेस के पास उंगलियो में गिन सकने वाली जबकि देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल पाया। खुद राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी मानी जानी वाली अमेठी सीट हार गये थे तो सरकार होने के बावजूद राजस्थान में उसे कुछ नहीं मिला था।
हिन्दी पट्टी में भाजपा की जीत ऐतिहासिक है। मोदी के जादू ने दूसरे राजनैतिक दलों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। खतरा ।
खतरा तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर भी मंडराने लगा है। नाथूराम गोडसे की जय बोलने वाले साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर दोनों चुनाव जीत गए हैं।
यह चुनाव जिस तरह से जंग में बदल चुका था उसके परिणाम इसी तरह ही आने थे। प्रज्ञा ठाकुर के जीत जाने के बाद क्या अब भाजपा ने जो नोटिस उन्हें दी है उसका कोई मायने होगा? क्या गांधी की प्रासंगिकता समाप्ति की ओर है?
लोकतंत्र में फैसले का मतलब इंसाफ कभी नहीं होता। इंसाफ तो राजतंत्र में भी नहीं होता था। इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था चुना गया। इतिहास गवाह है कि अपनी तरफ उठी उंगली को इंसाफ देने जब राजा रामचंद्र जी ने माता सीता को वनवास में भेजा तब क्या माता सीता के साथ इंसाफ हुआ था?
इसी तरह मोदी सरकार के जीत के कई मायने है? और समझना होगा कि इस जीत को किस रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि मौजूदा दौर में केरल, आंध्र, तमिलनाडू और तेलगांना को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में भाजपा ने जीत का नया सोपान रचा है। फैसला तो मोदी के हक में हुआ है और इसमें शाह की रणनीति महत्वपूर्ण मानी जा रही है।
यह सच है कि वक्त उस जमाने का नहीं अब का है। लेकिन उस जमाने की जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि आज का जमाना ज्यादा बोध्य और क्रूर है । वह किसी को नहीं बख़्सता । याद कीजिए उस दौर को जब इस देश ने ही नहीं पूरी दुनिया में गणेश जी को दूध पिलाने लोग निकल पड़े थे। यह किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है यह उस सोच का प्रयोग था जो आगे जाकर सत्ता में बने रहने के मंसूबे पाले थे।
इस तरह प्रयोग किया जाता रहा है। कभी मंदिर के नाम पर कभी राष्ट्रवाद के नाम पर तो कभी बापू के हत्यारे को महिमामंडित कर। इस प्रयोग में यह देखा जाता है कि कितनी अफवाहें, झूठ, धर्म और राष्ट्रवाद को सत्ता की सीढ़ी बनाया जाना है। इस प्रयोग में जन आकांक्षाओं को दिशा दी गई और आज इन्ही जनआकांक्षाओं को ही जगाकर सत्ता की कुंजी हासिल की गई। वैसे भी सत्य का मार्ग कठिन होता है और इससे सफलता के रास्ते भी लंबी होती है। बहुत सब्र करना पड़ता है और आज जब परिणाम तत्काल चाहिए तो झूठ और अफवाह का रास्ता आसान है।
आजादी की लड़ाई को जीने वाली वह पीढ़ी तो है नहीं, न ही वह पीढ़ी है जिन्होंने नेहरू को जिया है। इंदिरा को जीने वाली पीढ़ी भी कितनी है। ऐसे में वर्तमान परिस्थिति के लिए सारा दोष इतिहास पर धकेलना आसान होता है और इस पर वर्तमान मे तकलीफों से जूझ रहे लोगों में सहज विश्वास भी पैदा किया जा सकता है। अफवाहें सच के करीब रखी गई।
यानी भगतसिंह को फांसी हुई यह सच है इसलिए अफवाहे फैलाई गई कि गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रूक सकती थी। कोई कांग्रेसी उनसे मिलने जेल नहीं गया।
राजवाड़े में बंटे देश को एक करने में नेहरू और पटेल ने क्या कुछ नहीं किया। कश्मीर की समस्या दूसरी तरफ की थी।
मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिन्दू राजा था वह पृथक रहना चाहता था लेकिन नेहरू कश्मीरी होने के कारण उसे नहीं छोडऩा चाहते थे जबकि पटेल ने विवाद देखकर कह भी दिया था कि उसे रहने दे लेकिन कश्मीर प्रेम ने कुछ भी करके कश्मीर हासिल करने के ध्येय ने धारा 370 का प्रावधान दिया। लेकिन जब कश्मीर के हालात बिगड़े तो यह सच कौन सुनेगा।
सच तो कोई यह भी सुनने को तैयार नहीं है कि गोवा-सिक्किम के राजा आजादी के सालों बाद भारत में विलय हुआ तो उसमें कांग्रेस सरकार की भूमिका थी न ही सच कोई यह भी सुनने को तैयार है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन की रूपरेखा सावरकर ने 1932 में अपने टू नेशन थ्योरी के जरीये कर दी थी.
सच तो यह भी है कि इस देश में 1925 में बनी भारतीय कम्यूनिष्ट पाटी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज कहां है।
इसलिए जब सत्ता में पहुंचने का सीधा और आसान राह झूठ और अफवाह हो तो फिर आपकी आदत बिगड़ जाती है और सत्ता में बने रहने भी आप वहीं करते हैं।
यही वजह है कि बीते पांच साल हिन्दू-मुस्लिम, झूठ अफवाह और राष्ट्रवाद का ही प्रपंच रचा गया। ऐसा नहीं है कि काम कुछ नहीं हुआ। हम नरेन्द्र मोदी की तरह 70 साल में कुछ नहीं हुआ यह कभी नहीं कह सकते कि पिछले पांच साल में क्या हुआ। रसोई गैस घर-घर पुहंचाने की कोशिश हुई। मकान बनाने वालों को डेढ़ लाख तक कार्ड मिला, इसके अलावा भी कई काम हुए।
लेकिन मोदी सरकार के पांच साल में जो नहीं होना था वही सबसे ज्यादा हुआ। जिस स्वदेशी के नारों को लेकर संघ चल रही थी उस नारे का पता नहीं चला, संवैधानिक संस्थाओं का भरोसा टूटा या उस पर सरकार का शिकंजा कसा और जब संवैधानिक संस्थाएं भरोसा खो देगी तो फिर लोकतंत्र ही कहां रहेगा? पाटी का नींव रखने वाले त्रिमूर्ति को बेजुबान कर दिया गया। राजनैतिक सूचिता के अलावा चाल चेहरा चरित्र को झूठ और अफवाह के बादलों से ढांक कर फैसला कराया जायेगा तो लोकतंत्र पर उंगली तो उठेगी ही इंसाफ कहां होगा।
फैसला आ गया था और फैसला जनता ने किया था इसलिए 23 मई 2019 के इस फैसले को सबको स्वीकार करना ही था। उन लोगों को भी जो जनता के फैसले में इंसाफ ढूंढते है और उन्हें भी जो राजनीति में सुचिता, चाल-चेहरा और चरित्र को प्रमुखता देते है।
दरअसल लोकतंत्र में जीत का मतलब संख्या बल है और संख्याबल नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा था। पूरी हिन्दी पट्टी में कांग्रेस के पास उंगलियो में गिन सकने वाली जबकि देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल पाया। खुद राहुल गांधी अपनी पुश्तैनी मानी जानी वाली अमेठी सीट हार गये थे तो सरकार होने के बावजूद राजस्थान में उसे कुछ नहीं मिला था।
हिन्दी पट्टी में भाजपा की जीत ऐतिहासिक है। मोदी के जादू ने दूसरे राजनैतिक दलों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। खतरा ।
खतरा तो महात्मा गांधी की विचारधारा पर भी मंडराने लगा है। नाथूराम गोडसे की जय बोलने वाले साक्षी महाराज और प्रज्ञा ठाकुर दोनों चुनाव जीत गए हैं।
यह चुनाव जिस तरह से जंग में बदल चुका था उसके परिणाम इसी तरह ही आने थे। प्रज्ञा ठाकुर के जीत जाने के बाद क्या अब भाजपा ने जो नोटिस उन्हें दी है उसका कोई मायने होगा? क्या गांधी की प्रासंगिकता समाप्ति की ओर है?
लोकतंत्र में फैसले का मतलब इंसाफ कभी नहीं होता। इंसाफ तो राजतंत्र में भी नहीं होता था। इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था चुना गया। इतिहास गवाह है कि अपनी तरफ उठी उंगली को इंसाफ देने जब राजा रामचंद्र जी ने माता सीता को वनवास में भेजा तब क्या माता सीता के साथ इंसाफ हुआ था?
इसी तरह मोदी सरकार के जीत के कई मायने है? और समझना होगा कि इस जीत को किस रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि मौजूदा दौर में केरल, आंध्र, तमिलनाडू और तेलगांना को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में भाजपा ने जीत का नया सोपान रचा है। फैसला तो मोदी के हक में हुआ है और इसमें शाह की रणनीति महत्वपूर्ण मानी जा रही है।
यह सच है कि वक्त उस जमाने का नहीं अब का है। लेकिन उस जमाने की जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि आज का जमाना ज्यादा बोध्य और क्रूर है । वह किसी को नहीं बख़्सता । याद कीजिए उस दौर को जब इस देश ने ही नहीं पूरी दुनिया में गणेश जी को दूध पिलाने लोग निकल पड़े थे। यह किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है यह उस सोच का प्रयोग था जो आगे जाकर सत्ता में बने रहने के मंसूबे पाले थे।
इस तरह प्रयोग किया जाता रहा है। कभी मंदिर के नाम पर कभी राष्ट्रवाद के नाम पर तो कभी बापू के हत्यारे को महिमामंडित कर। इस प्रयोग में यह देखा जाता है कि कितनी अफवाहें, झूठ, धर्म और राष्ट्रवाद को सत्ता की सीढ़ी बनाया जाना है। इस प्रयोग में जन आकांक्षाओं को दिशा दी गई और आज इन्ही जनआकांक्षाओं को ही जगाकर सत्ता की कुंजी हासिल की गई। वैसे भी सत्य का मार्ग कठिन होता है और इससे सफलता के रास्ते भी लंबी होती है। बहुत सब्र करना पड़ता है और आज जब परिणाम तत्काल चाहिए तो झूठ और अफवाह का रास्ता आसान है।
आजादी की लड़ाई को जीने वाली वह पीढ़ी तो है नहीं, न ही वह पीढ़ी है जिन्होंने नेहरू को जिया है। इंदिरा को जीने वाली पीढ़ी भी कितनी है। ऐसे में वर्तमान परिस्थिति के लिए सारा दोष इतिहास पर धकेलना आसान होता है और इस पर वर्तमान मे तकलीफों से जूझ रहे लोगों में सहज विश्वास भी पैदा किया जा सकता है। अफवाहें सच के करीब रखी गई।
यानी भगतसिंह को फांसी हुई यह सच है इसलिए अफवाहे फैलाई गई कि गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रूक सकती थी। कोई कांग्रेसी उनसे मिलने जेल नहीं गया।
राजवाड़े में बंटे देश को एक करने में नेहरू और पटेल ने क्या कुछ नहीं किया। कश्मीर की समस्या दूसरी तरफ की थी।
मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिन्दू राजा था वह पृथक रहना चाहता था लेकिन नेहरू कश्मीरी होने के कारण उसे नहीं छोडऩा चाहते थे जबकि पटेल ने विवाद देखकर कह भी दिया था कि उसे रहने दे लेकिन कश्मीर प्रेम ने कुछ भी करके कश्मीर हासिल करने के ध्येय ने धारा 370 का प्रावधान दिया। लेकिन जब कश्मीर के हालात बिगड़े तो यह सच कौन सुनेगा।
सच तो कोई यह भी सुनने को तैयार नहीं है कि गोवा-सिक्किम के राजा आजादी के सालों बाद भारत में विलय हुआ तो उसमें कांग्रेस सरकार की भूमिका थी न ही सच कोई यह भी सुनने को तैयार है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन की रूपरेखा सावरकर ने 1932 में अपने टू नेशन थ्योरी के जरीये कर दी थी.
सच तो यह भी है कि इस देश में 1925 में बनी भारतीय कम्यूनिष्ट पाटी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज कहां है।
इसलिए जब सत्ता में पहुंचने का सीधा और आसान राह झूठ और अफवाह हो तो फिर आपकी आदत बिगड़ जाती है और सत्ता में बने रहने भी आप वहीं करते हैं।
यही वजह है कि बीते पांच साल हिन्दू-मुस्लिम, झूठ अफवाह और राष्ट्रवाद का ही प्रपंच रचा गया। ऐसा नहीं है कि काम कुछ नहीं हुआ। हम नरेन्द्र मोदी की तरह 70 साल में कुछ नहीं हुआ यह कभी नहीं कह सकते कि पिछले पांच साल में क्या हुआ। रसोई गैस घर-घर पुहंचाने की कोशिश हुई। मकान बनाने वालों को डेढ़ लाख तक कार्ड मिला, इसके अलावा भी कई काम हुए।
लेकिन मोदी सरकार के पांच साल में जो नहीं होना था वही सबसे ज्यादा हुआ। जिस स्वदेशी के नारों को लेकर संघ चल रही थी उस नारे का पता नहीं चला, संवैधानिक संस्थाओं का भरोसा टूटा या उस पर सरकार का शिकंजा कसा और जब संवैधानिक संस्थाएं भरोसा खो देगी तो फिर लोकतंत्र ही कहां रहेगा? पाटी का नींव रखने वाले त्रिमूर्ति को बेजुबान कर दिया गया। राजनैतिक सूचिता के अलावा चाल चेहरा चरित्र को झूठ और अफवाह के बादलों से ढांक कर फैसला कराया जायेगा तो लोकतंत्र पर उंगली तो उठेगी ही इंसाफ कहां होगा।
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