नफरत की ताकत...

 आज पूरे विश्व की निगाह जब भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव पर टिकी हो तब हमारे नेताओं की भाषा ने भारत की पहचान बनाने की जो कोशिश की है वह बेहद शर्मनाक है। किसने किसे गाली दी, किसने किसे छोड़ दिया इस पर चल रही प्रतिस्पर्धा के बीच भाषा की मर्यादा ही नहीं बची है।  गांधी के इस देश में इस बार के चुनाव में सारी मर्यादाएं लांघ दी जायेगी इसका संकेत तो पहले ही मिलने लगा था। लेकिन तब कौन जानता था कि सत्ता संघर्ष के इस महाभारत में सब कुछ समाप्त कर दिये जाने की तैयारी कर ली गई है। हालांकि नफरत की ताकत को हर बार प्यार के सामने झुकना पड़ा है इसलिए संसद में जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गले लगाते हुए जब कहा कि आप गाली देते रहो हम तो प्यार करते रहेंगे तो कुंभर नारायण की कविता की वह पंक्ति कईयों के जेहन मे रही होगी- टक अजीब सी मैं दूं इन दिनों मेरी भरपूर नफरत करने की ताकत दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही है  अंग्रेजो से नफरत करना चाहता जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया तो शेम्स पीयर आड़े आ जाते जिनके मुझपर न जाने कितने अहसान है मुसलमानों से नफरत करने चलता तो सामने गालिब आकर खड़े हो जाते अब आप ही बताईये किसी की चलती है उनके सामने ? सिखों से नफरत करना चाहता तो गुरूनानक आंखो में छा जाते और सिर अपने आम झुक जाता हर समय पागलो की तरह भटकता रहता कि कही कोई ऐसा मिल जाए  जिससे भरपूर नफरत कर लूं पर होता है इसका उलटा कोई न कोई, कभी न कभी, कहीं नकही ऐसा मिल जाता जिससे प्यार किये बिना रह ही नहीं पाता।  ऐसे में सिर्फ सत्ता के लिए नफरत को अपने से भी बड़ा खड़ा कैसे किया जा सकता है। नफरत के इस खेल का असर चुनाव बाद भी चलता रहा तब इस सार्वभौमिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या होगा? और इस व्यवस्था के हितराते ही क्या आम लोग खुशहाली से जी पायेंगी। सवाल यह नहीं है कि हम सत्ता संघर्ष में आरोप प्रत्यारोप न करें सवाल यह है कि क्या भाषा की गरिमा बनाकर भी सत्ता की लड़ाई को धारदार नहीं कर सकते। इस देश ने इंदिरा के आपातकाल को देखा है, बल्कि भुगता है, क्या हम उस दिशा में फिर लौट जाना चाहते हैं। राजनैतिक दलों का संघर्ष मंचो तक ठीक है और मंच को भी चाहिए कि उसकी भाषा ऐसी न हो कि संघर्ष सड़क पर दिखने लगे। क्योंकि जब संघर्ष सड़क पर आता है तो इससे आम आदमी का ही नुकसान अधिक होता है।  आज देश जिस दौर से गुजर रहा है वह बेहद कठिन दौर है। आर्थिक संकट, बेरोजगारी से लेकर सब कुछ छिन्न भिन्न है। ऐसे में संघर्ष को एक सीमा तक ही रखना उचित होगा। सत्ता तो आती जाती रहेगी लेकिन इसकी वजह से हम नफरत का बीज उस हद तक न बोएं कि महात्मा गांधी की तस्वीर को गोली मारने वाले जैसे कृत्य दूसरों की तस्वीरों के साथ करते लोग खड़े हो जाए।

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