आत्म-मुग्ध

आत्म मुग्ध
बीते पांच सालों में क्या हुआ यह जानने के पहले आपको दो हजार ग्यारह-बारह में जाना ही होगा। क्योंकि उसके पहले आप बीते पांच सालों को समझ ही नहीं पायेंगे?
मेरी समझ में बीते पांच सालों में क्या हुआ इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विरूद्ध अन्ना हजारे और रामदेव बाबा के आंदोलन केखड़े होने से ही शुरू किया जाना चाहिए? शायद यह पहली बार था जब देश के लोगों ने सुना कि मनमोहन सिंह की सरकार गांधी परिवार के इशारे पर कठपुतली की तरह नाच रही है और देश का धन विदेशों में जमा करने वालों को संरक्षण दिया जा रहा है। लोकपाल तत्काल बनाना चाहिए। मनमोहन सरकार में भ्रष्टाचार बेगाबू हो गया है पाकिस्तान जैसे पिद्दी देश हमें आंख दिखा रहा है और आतंकवादियों तक को संरक्षण दिया जा रहा है। आतंकवादियों की मेहमान नवाजी हो रही है और कश्मीर में अलगाववादियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी तरह के सवाल इतने जोर
शोर से अन्ना-बाबा ने न केवल उठाये बल्कि पूरे देश में रामदेव बाबा ने इसका घूम-घूम कर प्रचार किया। कैग की रिपोर्ट ने इस प्रचार को सत्यता का बल दिया और एक दिन बाबा ने इन मुद्दों को लेकर दिल्ली में धरना देने की घोषणा तक कर दी।
2004 में सत्ता जाने के बाद 2009 में भी पराजित हो हताशा में डूब रही संघ के लिए यह माहौल किसी संजीवनी से कम नहीं था। माना जाता है कि हताशा में डूबे संघ को नई उम्मीद की किरण नजर आई। क्योंकि अटल जी की सत्ता जाने के बाद भाजपा नेतृत्व का चमक फीका पड़ गया था और नये नेतृत्व के लिए मंथन चल रहा था। कहते है संघ ने रामदेव बाबा के आन्दोलन को पीछे से समर्थन करने की घोषणा कर दी। देश में जहां भी बाबा जाते उनके साथ संघ के अनुवाशिंक संगठनों से जुड़े लोग भीड़ बढ़ाते। बाबा के जगह-जगह कार्यक्रम में संघ के लोगों की सहभागिता छुपाने की कोशिश भी होती और बाबा इस आन्दोलन के बहाने स्वदेशी का राग अलापते अपनी पतंजलि कंपनी के लिए डीलर, ड्रिस्टीब्यूटर्स खड़ा करने लगे। चर्चा यह भी रही कि बाबा नई राजनैतिक पाटी भी बना रहे हैं।
तय समय में जब दिल्ली के रामलीला मैदान में कालाधन और स्वदेशी को लेकर बाबा धरने पर बैठ गये। तब भी धरने को पीछे से ही समर्थन का खेल भाजपा और संघ कर रही थी लेकिन कांग्रेस सरकार के कठोर रूख और आंदोलन को कुचलने के पुलिसिया प्रयास से बाबा डर गये और कांग्रेस पर हत्या की साजिश का आरोप लगाते हुए सलवार कुर्ता में सामने आते हुए बताया कि वह सलवार कुर्ता पहन कर छिप कर नहीं भागते तो उनकी हत्या कर दी जाती।
चूंकि तब तक माहौल पूरी तरह कांग्रेस के खिलाफ होता जा रहा था ऐसे में महाराष्ट्र में भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ मुहिम चलाकर हीरों बन चुके अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल पास करने और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने दिल्ली में आन्दोलन करने की घोषणा कर दी। अन्ना हजारे के इस आन्दोलन ने देश भर में कांग्रेस के खिलाफ माहौल खड़ा कर दिया। लोकपाल बिल को लेकर चली कवायद में भाजपा भी फंसती नजर आई और बिल के कुछ बिन्दू को लेकर सुषमा स्वराज ने तो अन्ना के साथ आन्दोलन में जुड़े अरविन्द केजरीवाल, गोपाल राय, किरण बेदी, प्रशांत भूषण जैसे लोगो से कह दिया कि चुनाव लड़ लो और जीतकर आकर अपने हिसाब से लोकपाल बिल बना लो। लेकिन अन्ना आंदोलन में आने और चुनाव लडऩे के खिलाफ थे लेकिन अरविन्द केजरीवाल सहित कई लोग सुषमा स्वराज की चुनौती को स्वीकार कर नये राजनैतिक दल गठन करना चाहते थे।
यानी आंदोलनकारियों को लड़ाकर आन्दोलन तोडऩे का खेल कामयाब हो चुका था। अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी लेकिन किरण बेदी ने इसका विरोध किया और बाद में वह भाजपा में चली गई।
लोकपाल बिल को लेकर जिस तरह से देश की तमाम राजनैतिक पाटियों की भूमिका थी उसके बाद अरविन्द केजरीवाल के सामने पाटी बनाने के अलावा क्या कोई चारा था। यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अब तक अपने सुख सुविधा वेतन के लिए गुस्सा दिखाने वाले देश के तमाम राजनीतिक दलों ने किस तरह से लोकपाल बिल को कमजोर करने में एकता दिखा रहे थे उससे राजनीति नंगी होने लगी थी। ऐसे में जब नंगी हो चुकी राजनीति के इतर खुद का दल बनाया तो दिल्ली की जनता ने उसे सर आंखो पर बिठाया। बगैर पैसे और बगैर संगठन के बिल्कुल नये चेहरों ने भाजपा कांग्रेस के दिग्गजो को कहीं का नहीं छोड़ा था। तीन साल तक शानदार सरकार चलाने वाली कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला तो भाजपा तीन सीट जीतकर इज्जत बचाने की कोशिश में लगी थी।
यह 2014 के पहले का वह तीन साल है जो बेदाग मनमोहन सिंह की छवि को भले ही खराब करने में कामयाब नहीं हो पाया लेकिन कांग्रेस के खिलाफ देशव्यापी माहौल तो खड़ा कर ही दिया था। झूठ-छल-प्रपंच की ऐसी हवा चली कि कांग्रेस के पास उन झूठों का भी कोई जवाब नहीं था जो भाजपा या दूसरे दल के नेता भाषणों में लगातार बोले जा रहे थे। भाजपा का सच भी कांग्रेस के खिलाफ ही जाने लगा था जबकि अन्ना आन्दोलन के दौरान लोकपाल बिल का जो हश्र हुआ उसके लिए सिर्फ कांग्रेस ही नहीं या सिर्फ भाजपा ही नहीं लोकसभा में मौजूद सभी राजनैतिक दल जिम्मेदार थे।
लेकिन कहते है पुराने जमाने में युनानी लोग ओलम्पिक में दूसरे नंबर पर आने वालों का कोई रिकार्ड नहीं रखते थे उसी तरह कांग्रेस ही निशाने पर रही। कांग्रेस के खिलाफ माहौल चरम पर पहुंच चुका था और इसका फायदा भाजपा को इसलिए भी मिला क्योंकि वह अकेली राष्ट्रीय पाटी थी जो कांग्रेस को हराकर अपने दम पर सरकार बना सकती थी। हालांकि विकल्प बनने के लिए आम आदमी पाटी ने भी सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा कर दिया था लेकिन संगठन और पैसे के अभाव में इस बार उसका दांव नहीं चला।
भाजपा 2014 की बाजी न केवल जीत चुकी थी बल्कि वह अपने दम पर 272 में पहुंच चुकी थी और कांग्रेस अब तक के अपने सबसे कमजोर स्थिति में पहुंच गई थी। जहां नेता प्रतिपक्ष के लिए निर्धारित सांसद तक उसके पास नहीं थे।
कांग्रेस के रहते नाउम्मीद के दौर से जनता उबर चुकी थी और अच्छे दिन आयेंगे के उम्मीद को लेकर जीने की नई सुबह की प्रतिक्षा करते थे मोदी सरकार से उम्मीद का पहाड़ खड़ा कर चुके थे।
राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटा  देने, आतंकवाद से मुक्ति, भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करते हुए विदेशों से कालाधन लाने और विदेशों में कालाधन जमा करने वालों को जेल की सलाखों में जनता देखना चाह रही थी। उसके उम्मीद परवान चढऩे लगा था बिल्कुल उस बच्चे की तरह जो हाथ में फिसल चुके बाल को पकडऩे अंधाधुध दौड़ता है और बाल को पकडऩे से पहले चारों तरफ देखते हुए विजयी मुस्कान में अपनी आंखे छोटी कर लेता है।

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