झूठ-षडय़ंत्र


मौजूदा समय में सच को पकडऩा दुश्वार हो गया है हालांकि रात कितनी भी गहरी और काली क्यों न हो सुबह जरूर आती है लेकिन विभिन्न राजनैतिक दलों के आईटी सेल ने सब गड्ड-मड्ड कर दिया है।
वाक्या बहुत पहले का नहीं जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1987 में ईमेल से फोटो भेजने और उस रंगीन फोटो को दिल्ली के एक अखबार में छपने का दावा किया। इलेक्ट्रानिक मीडिया भी प्रधानमंत्री के इस दावे का  महिमामंडन करने लगे तभी अचानक पता चला कि इस देश में ईमेल की शुरूआत ही 1992 को हुई। फिर क्या था नरेन्द्र मोदी के दावे की खबर ही गायब कर दी गई। लेकिन सोशल मीडिया और वाट्सअप युनिर्वसिटी ने ऐसा मजाक बनाया कि इतना मजाक कभी की किसी प्रधानमंत्री का नहीं बना था।
भले ही यह खबर मजाक बन गया हो लेकिन सच कहूं तो प्रधानमंत्री के इस दावे से मैं डर गया था क्योंकि हम लोग जिस इज्जत और शर्म का खुराक लेकर पले बढ़े है उसमें इस तरह से सार्वजनिक रूप से पकड़ाये जाने का मतलब समझ सकते हैं लेकिन सत्ता के लिए जिस तरह की बेशर्मी दिखाया गया है वह बचपने से सच और झूठ के संस्कार की घुट्टी के विपरित है।
बचपन में झूठ बोलने वालों के लिए कहा जाता था
झूठ बोलना पाप है
गड्डे में सांप है
वहीं तुम्हारा बाप है
और फिर शोमैन राजकुमार की फिल्म बाबी में झूठ बोले कौआ काटे वाला गीत भी इसी संस्कार की वजह से आज भी चल रहा है।
आज भी जनमानस में झूठ स्वीकार्य नहीं है और इसे आज भी पाप के रूप में ही देखा जाता है। झूठ के बारे में लिखते समय आज भी मुझे वे घटनाएं याद है जो बचपने में शरारत के दौरान झूठ बोलने और फिर पकड़े जाने पर पिटाई होती है लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री झूठ बोलने लगे तो फिर मान्य भारतीय परम्परा का क्या होगा? हालांकि मोबाइल के जमाने में पल-पल झूठ बोलते लोगो के लिए यह जरूरी मुद्दा भले ही न बने लेकिन क्या इस तरह की झूठ संघ के संस्कार पर भी सवाल नहीं उठाते है कि वह किस तरह का चरित्र निर्माण कर रहा है जिससे संघ से निकला व्यक्ति देश के सबसे गरिमामय पद पर बैठकर सार्वजनिक रूप से न केवल झूट बोलता है बल्कि पकड़े जाने पर माफी भी नहीं मांगता।
हालांकि संघ के संस्कार को लेकर मुझे सवाल उठाने का कोई हक नहीं है इसकी पहली वजह तो यह है कि मैं कभी संघ गया नहीं और दूसरी वजह यह है कि संघ में चरित्र निर्माण या सांस्कृतिक संगठन होने के दावों पर मुझे कभी यकीन ही नहीं हुआ इसलिए सत्ता के लिए राजनैतिक दलों के झूठ और षडय़ंत्र को लेकर जो मौजूदा हालात है वह चिंताजनक है। खुले मंच में हजारों लोगों के सामने राजनैतिक सत्ता के लिए हमारे नेता बिल्कुल किसी खुले में अनुष्ठान की तरह झूठ बोलते है लेकिन जब प्रधानमंत्री भी झूठ बोलने लगे तो फिर चिंता करना चाहिए कि हम इस देश को कहां ले जा रहे हैं। आने वाली पीढ़ी को क्या सीखा रहे है और जब झूठ बोलने से प्रधानमंत्री को कुछ नहीं होता तो फिर किसी को क्यों सजा होनी चाहिए।
संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के सार्वजनिक रूप से झूठ बोले जाने पर क्या सुप्रीम कोर्ट को इसे संज्ञान में नहीं लेना चाहिए कि इसका असर से जो नुकसान इस देश का होगा वह बहुत ही बुरा होगा।
क्योंकि प्रधानमंत्री पद की गरिमा को लेकर जो जनभावनाएं है उससे न केवल प्रधानमंत्री पद की गरिमा को धक्का लगा है बल्कि लोगों का इस पद से भरोसा भी टूटा है।
जबकि सच कहूं तो भरोसा ही किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी पूंजी है और हम इसी भरोसे की वजह से राजा हरिशचंद को उदाहरण के रूप में इसलिए प्रस्तुत करते हैं कि राजा होते हुए भी उन्होंने सच और ईमान को कभी नहीं छोड़ा। विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ा। लेकिन आज यह क्या हो रहा है क्या हम राजा हरिशचंद्र के इतिहास को नकार कर नया इतिहास बनाये और यह कहे कि लोकतंत्र में प्रधानमंत्री को सत्ता में बने रहने के लिए झूठ बोलना चाहिए।
मेरा एक दोस्त है उसके परिवार के कुछ सदस्य अमेरिका में रहता है। उसने मुझे बताया कि ईमेल वाली घटना की रात उन्हें फोन आया और फोन पर उसके चाचा ने कहा कि तुम्हारा प्रधानमंत्री तो झूठ बोलता है? मेरे दोस्त को यह बहुत बुरा लगा था। हमें तो मुस्कुराते हुए बस बर्दाश्त करना है यह शिकायत करते हुए उस दिन जावेद ने जब यह बात कही तो मैं हैरान रह गया कि इस देश में यह सब हो क्या रहा है। क्या सचमुच इस देश की संवैधानिक संस्थाओं में एक विचारधारा को लादने की कोशिश में छल-प्रपंच चल रहा है वह भी सरकारी स्तर पर।
शिक्षा में राजनीति को लेकर हमेशा ही बवाल मचता रहा है। क्या पढ़ाया जाना चाहिए इसे लेकर राजनीति तो होते रही है लेकिन यदि देश का एचआरडी मिनिस्टर का सीधा निर्देश आने लगे तो मामला गंभीर हो जाता है। रोहित वेमुला की मौत के बाद जिस तरह के खुलासे हो रहे थे। उससे जावेद परेशान था। जावेद की परेशानी की वजह सिर्फ एक यही मामला बस नहीं था। इसलिए जावेद ने कहा था जिस तरह से जजों ने प्रेस कांफ्रेंस की है और इस देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। चिंता की बात तो सीबीआई मुख्यालय में डायरेक्टर वर्मा और अस्थाना ने विवाद पर भी होना चाहिए। क्या संस्थाओं पर विश्वास को लेकर सरकार को प्रयास नहीं करना चाहिए।
उस दिन विजय बहुत नाराज हुआ था जावेद पर। वह सीधा हमलावर हुआ जा रहा था कि सत्तर साल से इस देश में जो कुछ चल रहा था वह पूरी तरह से गलत था और जब आज मोदी सरकार सबको ठीक करना चाहती है तो जो चोर और डकैत है उन्हें आपत्ति हो रही है।
उस दिन तो मैने हस्ताक्षेप कर मामले को सुलझा लिया था लेकिन जब सांख्यिकी विभाग द्वारा आंकड़े रोके जाने का खुलासा हुआ तो जावेद फिर उत्तेजित हो गया और चर्चा जिस तरह से गरमागरम बहस के साथ गाली-गलौच और देखलेने तक पहुंच गया। वह शर्मनाक माना जाना चाहिए।
गलत को गलत बोलने पर जिस तरह से मोदी समर्थक हायतौबा मचाते थे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। मोदी समर्थक कुछ सुनना ही नहीं चाहते उन्हें लगता है कि नरेन्द्र मोदी कभी कुछ गलत करेंगे ही नहीं।
लेकिन सच तो यह है कि राजनीति में सत्ता के वर्चस्व के लिए संवैधानिक संस्थानों पर हस्ताक्षेप नया नहीं है। कांग्रेस सरकार में तो सीबीआई की शाख में जबरदस्त गिरावट आई थी और इसके इस्तेमाल को लेकर सीबीआई को कांग्रेस का तोता तक कहा गया था लेकिन यहां तो तोते की जान निकालने की कोशिश हो रही थी।
संतोष जी तो इन मामलों से बेपरवाह थे। उन्होंने कहा कि यह सब तिल को ताड़ बनाने की कोशिश है। जो भी सरकार बैठती है वह संवैधानिक संस्थानों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश करती ही है।
लेकिन कमल को लगता है कि कुछ तो गड़बड़ हो रहा है। कहीं न कहीं सरकार की नीति इसके लिए जिम्मेदार है और यदि हर सरकार यह सब करती भी है तो फिर कभी सार्वजनिक क्यों नहीं हुआ। संस्थानों के विवाद सामने क्यों नहीं आये। क्या इससे उनकी विश्वसनीयता समाप्त नहीं हो जायेगी। आखिर लोकतंत्र तो इसी विश्वास पर जीवित है कि नेता भले ही गलत कर दे लेकिन संस्थान गलत नहीं करेगी। संस्थानों में बैठे प्रमुख पर भरोसा तो किया ही जा सकता है।
इस पर संतोष जी ने जब कहा कि यह सब बेवजह का बवाल है तो कमल ने कहा चलिये आप की बात मान भी लूं तो क्या इस बार चुनाव आयोग पूरी तरह पंगु नहीं हो गया है। इस देश ने तो टीएन शेषन का चुनाव आयोग देखा है जिससे चुनाव के दौरान सभी राजनैतिक दलों में यह चिंता होती थी कि यदि कुछ भी गड़बड़ हुआ तो बख्शें नहीं जायेंगे लेकिन इस चुनाव में क्या हुआ। जाति - धर्म , सेना से लेकर अभद्र भाषा का जिस लापरवाही से इस्तेमाल हुआ उससे कहीं लगा
कि चुनाव आयोग जैसी कोई संस्था है। वह तो सुप्रीम कोर्ट में मामला चला गया तो कुछ नेताओं पर चंद घंटे के लिए प्रचार बंद करने का फरमान जारी हो गया लेकिन जिस तरह से नरेन्द्र मोदी को क्लीनचीट देने को लेकर आयोग के सदस्यों का विवाद बाहर आया है उससे विश्वास का संकट तो पैदा हो ही गया है।
चुनाव आयोग का खौफ होना चाहिए लेकिन यह खौफ कहां दिखा। जिसे देखो वही चुनाव संहिता की धज्जियां उड़ाते घूम रहा था। क्या ऐसे में चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठेंगे और जब लोकतंत्र का आधार पर ही विश्वास का संकट खड़ा हो जायेगा तो आम जनमानस किस पर भरोसा करेगी।
अकील तो जैसे मौके की ताक पर बैठा था उसने तपाक से कहा संतोष जी जितने भी ईवीएम में गड़बड़ी पकड़ी जा रही है उनमें वोट भाजपा को जाते ही क्यों दिखता है? और जो बीस बाईस लाख ईवीएम मशीन चोरी हो जाने का मामला क्या चुनाव की निष्पक्षता और एक पाटी विशेष के षडय़ंत्र की ओर ईशारा नहीं कर रही है। हरियाणा के एक स्टांग रूम में ईवीएम से लदी ट्रक का पकड़ाना क्या यह सब संयोग है। यदि सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह की गड़बड़ी होने लगे तो फिर आम आदमी क्या करे। देश तो बरबाद हो ही जायेगा।
चर्चा का मिजाज गरमाने लगा था और कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था इसलिए मुझे कहना पड़ा की इतनी भी अंधेर नहीं है। स्ट्रांग रूम में रखी ईवीएम को बदलना आसान नहीं है। सख्त पहरे के अलावा प्रत्याशियों के समर्थको का भी पहरा है ऐसे में सरकार और चुनाव आयोग मिल भी जाये तो मशीन तो नहीं बदली जा सकती।
मेरी इस बात से संतोष जी को थोड़ी राहत मिली थी और उन्होंने मुस्कुराते हुए घर निकलने की बात कही तो चर्चा समाप्त हो गई क्योंकि मोदी सरकार के समर्थन करने की वजह से संतोष जी ही निशाने पर थे और जब लक्ष्य ही चला गया तो निशाना किस पर लगता। लेकिन मन ही मन में इस तरह के षडय़ंत्र को लेकर मैं संशकित जरूर था। क्योंकि मोदी सरकार के क्रियाकलापों को लेकर जो छवि है उसमें मोदी है तो मुमकिन है चाहे वह गलत ही क्यों न हो? और ऊपर से जिस पैमाने में उत्तरप्रदेश हरियाणा और पंजाब में ईवीएम पकड़ाये जा रहे थे उस पर चुनाव आयोग की चुप्पी हैरान करने वाली थी कि आखिर ईवीएम ट्रक के ट्रक पकड़ाये जाने के बाद भी हम किस तरह से चुनाव की निष्पक्षता पर मुहर लगाये या षडय़ंत्र से कैसे इंकार करे।
आप क्या सोचते है सत्ता के झूठ और षडय़ंत्र को कोई चुपचाप देख सकता है या फिर सिर्फ वैचारिक सहमति के चलते विरोध के स्वर को दबा दिया जाए? जो लोग  जिस्म पर दिमाग के सीधे असर करने की बात पर सत्ता के झूठ और षडय़ंत्र के बारे में सोचना चाहिए।
मेरा मतलब उन जज्बातों से है जो महसूस किया जाना चाहिए और भविष्य में लोकतंत्र के बारे में न सोचे तो कम से कम अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए।
उदाहरण के लिए बता दूं कि अचानक पांच सौ, हजार रूपये के नोट बंद करने की घोषणा के दौरान प्रधानमंत्री ने क्या कहा था। कालाधन आयेगा, आतंकवाद व नक्सलियों की कमर टूट जायेगी। नकली नोट समाप्त हो जायेंगे लेकिन प्रधानमंत्री की बातों पर भरोसा करते हुए तमाम कष्ट सहते हुए जिन लोगों ने लाईन में लग कर भी जो लोग खामोश रहे। दरअसल नोटबंदी की वजह कालाधन या आतंकवाद से जुड़ी बाते या नकली नोटों का चलन बंद करना नहीं इसके पीछे क्या विपक्षी दलों के द्वारा चुनावों में किये जाने वाले नोटों को रोकना और खुद की पाटी को मदद करना था।
गुजरात के सहकारी बैंकों में नोटबंदी के दौरान नोट बदले जाने की खबर के बीच किसी ने देखा कि कौन से बड़े लोग नोट बदलवाने लाईन में लगे। जिन नेताओं और व्यापारियों पर बड़े नोट जमा करने का संदेह था वे तो अपने नोट रातों रात बदलवा लिये।
लोगों को परेशानी से बचाने का उपाय ही नहीं किया गया। यहां तक कि जिस नोटबंदी को राष्ट्रवाद से जोड़ा गया था उसका भी जिक्र चुनाव में न नरेन्द्र मोदी कर पाये न भाजपा ने राष्ट्रीय अलाकमान ने ही किया।
विरोधी दलों को समाप्त करने की मंशा से किये जा रहे कई षडय़ंत्रों में से क्या नोटबंदी भी एक षडय़ंत्र था।
इस बीच भाजपा में अपने को मजबूत करने का जो उपाय किया उससे किसी को परेशानी नहीं है और परेशानी होनी भी नहीं चाहिए हर राजनैतिक हल अपने विस्तार के लिए अभियान चलाता है लेकिन परेशानी और चिंता की बात यह है कि मोदी सरकार के दौरान देशभर में भाजपा और संघ के अनुवांशिक संगठनों के तीन सौ से ऊपर भव्य कार्यालय बनाये गए। इनमें से पचासों कार्यालयों में फाईव स्टार होटलो की तरह सुविधा है।
क्या जनता को यह सवाल भी नहीं पूछना चाहिए कि संघ के सादगी के साथ चरित्र निर्माण के संस्कार को लेकर निकलने वाले भाजपा में आते ही इतनी बड़ी संख्या में  भव्य कार्यालय किस तरह बना लिये। इसके लिए पैसा कहां से आया। क्या सत्ता के दम पर कार्पोरेट सेक्टर को निशाना बनाया गया है या फिर आम लोगों के चंदे से बना है।
रायपुर में ही सेजबहार स्थित भाजपा कार्यालय को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि सिर्फ चंदे के दम पर कोई इतना बड़ा कार्यालय कैसे बना सकता है।
यह सवाल उनके लिए भी है जो विपक्ष में रहते आरोप तो लगाते है लेकिन सत्ता में आते ही पुरानी सरकारों के कारनामों को भुला देते है?
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बीते 15 सालों में भाजपा की सरकारे रही। व्यापंम में नरसंहार से लेकर रोगदा बांध बेच देने की घटना क्या मुस्कुराकर बर्दाश्त किया जाना चाहिए?
सवाल कई है और सवालों का सिलसिला चलता रहेगा क्योंकि लोकतंत्र अभी जिन्दा है।

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