अल्प-विराम
अल्प विराम
यह सच है कि इन सत्तर सालों में सरकारों ने बहुत बेईमानी की। वोट की खातिर ऐसा कुछ किया जिससे सरकार की नियत पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिस मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर कांग्रेस बदनाम है वह मुसलमान भी कांग्रेस के साथ कहां है।उन्हें जब भी कांग्रेस का विकल्प मिला वह उनके साथ चले गये। देश के सबसे बड़े सूबा उत्तरप्रदेश में मुसलमान सपा-बसपा के साथ है तो बिहार मे लालू नीतिश के साथ हर प्रदेश में मुसलमान क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ खड़ा है लेकिन धर्म निरपेक्ष की दुहाई देता कांग्रेस का मतदाताओं पर पकड़ कमजोर होता चला गया।
यह मसला मैं इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि जिस धर्मनिरपेक्ष की दुहाई के दम पर भारत का संविधान खड़ा है वह एक तरह से गाली बना दिया गया है। वक्त के साथ बहुत कुछ बदला है और इस बदलाव की अनदेखी ने ही हमारे सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार किया हैं।
इसलिए मैं वक्त को कुछ पीछे ले जाकर सोचने की कोशिश कर रहा था कि आखिर मौजूदा हालात के लिए सिर्फ सावरकर या संघ दोषी है ? या कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण भी दोषी है। आजादी के 70 सालों में हमने कई मामलों में विश्व के अन्य देशों को पीछे छोड़ते हुए अपना दबदबा बनाया है आज अमेरिका-चीन या कोई भी देश हमारे देश को नजरअंदाज कर नहीं सकता। हमारी गिनती तरक्की के रास्ते में चलने वाले देशों में ऊपर के पांच देशों में है तो शिक्षा गरीबी के मामले में हम नीचे के पायदान में खड़े हैं। ये विसंगतियां ही मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार तो नहीं है।
सवाल यह नहीं है कि हिन्दुवादी मुस्लिमवादी या ईसाईवादी क्या सोचते या करते हैं? सवाल यह है कि लगातार बिगड़ते हालात को संभालने की बजाय बिगाडऩे की कोशिश सिर्फ सियासी है।
आजादी की जंग हिन्दू-मुस्लिम एक साथ मिलकर लड़ रहे थे तब अंग्रेजों ने जो जहर बोया क्या वह अब भी फलता-फूलता रहेगा। सावरकर ने 1932 में जो टू नेशन थ्योरी लिखा वह 1947 के बंटवारे के साथ खत्म क्यों नहीं हुआ। गांधी की हत्या के बाद भी उनके तस्वीरों को बार-बार गोली मारने की कोशिश क्यों नहीं थम रहा है।
क्या देश में लोकतांत्रिक सत्ता से इतर कोई और सत्ता भी है जो अब मुखर होना चाहता है। मुझे याद है एक बार धर्म निरपेक्ष को लेकर जब चर्चा हो रही थी तो राकेश और अकील दोनों ही इस बात पर सवाल उठाये कि जिस तरह तुम विश्व नागरिक नहीं हो सकते उसी तरह न तुम धर्मनिरपेक्ष हो सकते हो और न ही अपनी जाति बंधन से ही अलग हो सकते हो। नाम के साथ ही तुम्हारा धर्म जुड़ जाता है। धर्म निरपेक्ष की कोशिश करोगे तो धर्म के ठेकेदारों द्वारा लताड़ दिये जाओगे। अधिक से अधिक तुम दूसरे धर्म के लोगों के हमदर्द बन सकते हो। क्योंकि धर्म और जाति ने सबको इस तरह अपने में कैद करने का फार्मूला तैयार कर लिया है कि कोई इससे बाहर निकलने की कोशिश करे भी तो उसके नाम या सरनेम उसे निकलने नहीं देगा। जब आपके नाम और सरनेम से ही धर्म और जाति की पहचान निश्चित कर दी गई हो तो इससे बाहर निकलने का क्या उपाय है?
मैं उस दिन निरूत्तर अकील और राकेश की बात सुनता रहा। मुझे भी कोई जवाब नहीं सुझ रहा था। लेकिन दिल कह रहा था कुछ तो उपाय होगा। आखिर इस देश में सामाजिक ताना-बाना किस बिना पर इतना मजबूत है।
जबकि हर धर्म के ठेकेदारों ने इसे तोडऩे की भरपूर कोशिश की। यही वजह है कि हर चुनाव में जाति और धर्म ही सत्ता की सीढ़ी बनता चला गया और आम जन मानस भी जाति और धर्म में उलझ कर अपने लिए ऐसा प्रतिनिधि चुन रहे थे जो बुनियादी जरूरतों के बारे में सोचने की बजाय अपनी जेबे भरने की ज्यादा सोचता है। इसलिए 80 के दशक के बाद राजनीति में भारी गिरावट ही नहीं आई,शिक्षा-स्वास्थ्य पानी जैसी बुनियादी जरूरतों पर कोई विशेष काम नहीं हुआ। शिक्षा में हम बेरोजगारी पैदा करने लगे और महंगी स्वास्थ्य ने हमें तोड़कर रख दिया। धर्म और जाति के झगड़े को बढ़ावा दिया जाने लगा। जिस हिन्दू की दुहाई देकर राजनीति की जाने लगी उनके लिए दलित आज भी मुस्लिम से भी अछूत हैं।
मुझे याद है कि जब मैं पत्रकारिता की शुरूआत कर रहा था तब उन दिनों एक पर्चा मेरे हाथ आया था। जिसका हेडलाईन था-
-हिन्दू जागो देश बचाओ
- एक सक्षम और सबल हिन्दू ही राष्ट्र निर्माण कर सकता है
- धर्मनिरपेक्ष छलावा है और यह मात्र मुस्लिम या ईसाई तुष्टिकरण है
पर्चा में आगे लिखा था-
हिन्दुओं को अपनी उदारता के कारण ही लगातार हानि उठानी पड़ रही है। मुसलमानों और ईसाईयों के पचासों देश दुनिया भर में है। हिन्दुओं का केवल एक ही देश भारत है लेकिन इसे भी धर्मशाला बना दिया गया है।
षडय़ंत्र पूर्वक हिन्दुओं को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिन्दू खत्म किया जा रहे हैं और जो लोग इस देश में हिन्दुओं के लिए लड़ता है उसे साम्प्रदायिक कहकर अपमानित किया जाता है।
संघ के विशेषज्ञ भी मानते है कि आज से पचास साल बाद हिन्दुओं की आबादी आधी हो जायेगी। हिन्दुओं के लिए हम दो हमारे दो का नारा देने वाले मुसलमानों के लिए हम पांच हमारे पच्चीस पर कुछ नहीं कहते बल्कि वोट बैंक बनाकर उनके हर गलत कार्यों को पनाह देते हैं। इसलिए चुनावों मे हिन्दुओं को एक मत होकर उन प्रत्याशियों को वोट देना चाहिए जो हिन्दू हितों की बात करता है।
पर्चे के अंत में यह भी लिखा था कि इसे फोटो कॉपी कराकर अधिक से अधिक वितरित करें।
पर्चा पढ़कर उस समय तो मैं भी असहज हो गया था लेकिन समय गुजरने के बाद याद करता हूं तो पाता हूं कि पर्चे में जानबुझकर वहीं बाते लिखी गई थी जिससे किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने वाला था। ऐसा नहीं है कि इस तरह के पर्चे केवल हिन्दू वोट चाहने वाले या हिन्दूओं के ठेकेदार ही बंटवाते हैं। ऐसे पर्चे मुस्लिम, इसाई या दूसरे धर्म के लोग भी बंटवाते रहते हैं।
जिस तरह से हिन्दू संगठनों के पास कश्मीर, पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के आंकड़े होते हैं उसी तरह इसाई और मुस्लिम समाज के पास हिन्दुओं द्वारा प्रताडि़त किये जाने के आंकड़े पर्चे में छापकर वितरित किये जाते हैं।
मेरा दावा है कि सभी धर्मो के आंकड़े न केवल फर्जी होते है बल्कि तात्कालिक घटना को बढ़ाचढ़ा कर या उसे बड़े रूप में दिखाने के लिए ही फर्जी आंकड़ों को समाहित किया जाता है।
इस तरह के पर्चे पर उस दिन चर्चा के दौरान हासिम ने कहा था कि यह सब सत्ता में बने रहने की कोशिश का एक जरिया है।
यह सच है कि इन सत्तर सालों में सरकारों ने बहुत बेईमानी की। वोट की खातिर ऐसा कुछ किया जिससे सरकार की नियत पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिस मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर कांग्रेस बदनाम है वह मुसलमान भी कांग्रेस के साथ कहां है।उन्हें जब भी कांग्रेस का विकल्प मिला वह उनके साथ चले गये। देश के सबसे बड़े सूबा उत्तरप्रदेश में मुसलमान सपा-बसपा के साथ है तो बिहार मे लालू नीतिश के साथ हर प्रदेश में मुसलमान क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ खड़ा है लेकिन धर्म निरपेक्ष की दुहाई देता कांग्रेस का मतदाताओं पर पकड़ कमजोर होता चला गया।
यह मसला मैं इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि जिस धर्मनिरपेक्ष की दुहाई के दम पर भारत का संविधान खड़ा है वह एक तरह से गाली बना दिया गया है। वक्त के साथ बहुत कुछ बदला है और इस बदलाव की अनदेखी ने ही हमारे सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार किया हैं।
इसलिए मैं वक्त को कुछ पीछे ले जाकर सोचने की कोशिश कर रहा था कि आखिर मौजूदा हालात के लिए सिर्फ सावरकर या संघ दोषी है ? या कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण भी दोषी है। आजादी के 70 सालों में हमने कई मामलों में विश्व के अन्य देशों को पीछे छोड़ते हुए अपना दबदबा बनाया है आज अमेरिका-चीन या कोई भी देश हमारे देश को नजरअंदाज कर नहीं सकता। हमारी गिनती तरक्की के रास्ते में चलने वाले देशों में ऊपर के पांच देशों में है तो शिक्षा गरीबी के मामले में हम नीचे के पायदान में खड़े हैं। ये विसंगतियां ही मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार तो नहीं है।
सवाल यह नहीं है कि हिन्दुवादी मुस्लिमवादी या ईसाईवादी क्या सोचते या करते हैं? सवाल यह है कि लगातार बिगड़ते हालात को संभालने की बजाय बिगाडऩे की कोशिश सिर्फ सियासी है।
आजादी की जंग हिन्दू-मुस्लिम एक साथ मिलकर लड़ रहे थे तब अंग्रेजों ने जो जहर बोया क्या वह अब भी फलता-फूलता रहेगा। सावरकर ने 1932 में जो टू नेशन थ्योरी लिखा वह 1947 के बंटवारे के साथ खत्म क्यों नहीं हुआ। गांधी की हत्या के बाद भी उनके तस्वीरों को बार-बार गोली मारने की कोशिश क्यों नहीं थम रहा है।
क्या देश में लोकतांत्रिक सत्ता से इतर कोई और सत्ता भी है जो अब मुखर होना चाहता है। मुझे याद है एक बार धर्म निरपेक्ष को लेकर जब चर्चा हो रही थी तो राकेश और अकील दोनों ही इस बात पर सवाल उठाये कि जिस तरह तुम विश्व नागरिक नहीं हो सकते उसी तरह न तुम धर्मनिरपेक्ष हो सकते हो और न ही अपनी जाति बंधन से ही अलग हो सकते हो। नाम के साथ ही तुम्हारा धर्म जुड़ जाता है। धर्म निरपेक्ष की कोशिश करोगे तो धर्म के ठेकेदारों द्वारा लताड़ दिये जाओगे। अधिक से अधिक तुम दूसरे धर्म के लोगों के हमदर्द बन सकते हो। क्योंकि धर्म और जाति ने सबको इस तरह अपने में कैद करने का फार्मूला तैयार कर लिया है कि कोई इससे बाहर निकलने की कोशिश करे भी तो उसके नाम या सरनेम उसे निकलने नहीं देगा। जब आपके नाम और सरनेम से ही धर्म और जाति की पहचान निश्चित कर दी गई हो तो इससे बाहर निकलने का क्या उपाय है?
मैं उस दिन निरूत्तर अकील और राकेश की बात सुनता रहा। मुझे भी कोई जवाब नहीं सुझ रहा था। लेकिन दिल कह रहा था कुछ तो उपाय होगा। आखिर इस देश में सामाजिक ताना-बाना किस बिना पर इतना मजबूत है।
जबकि हर धर्म के ठेकेदारों ने इसे तोडऩे की भरपूर कोशिश की। यही वजह है कि हर चुनाव में जाति और धर्म ही सत्ता की सीढ़ी बनता चला गया और आम जन मानस भी जाति और धर्म में उलझ कर अपने लिए ऐसा प्रतिनिधि चुन रहे थे जो बुनियादी जरूरतों के बारे में सोचने की बजाय अपनी जेबे भरने की ज्यादा सोचता है। इसलिए 80 के दशक के बाद राजनीति में भारी गिरावट ही नहीं आई,शिक्षा-स्वास्थ्य पानी जैसी बुनियादी जरूरतों पर कोई विशेष काम नहीं हुआ। शिक्षा में हम बेरोजगारी पैदा करने लगे और महंगी स्वास्थ्य ने हमें तोड़कर रख दिया। धर्म और जाति के झगड़े को बढ़ावा दिया जाने लगा। जिस हिन्दू की दुहाई देकर राजनीति की जाने लगी उनके लिए दलित आज भी मुस्लिम से भी अछूत हैं।
मुझे याद है कि जब मैं पत्रकारिता की शुरूआत कर रहा था तब उन दिनों एक पर्चा मेरे हाथ आया था। जिसका हेडलाईन था-
-हिन्दू जागो देश बचाओ
- एक सक्षम और सबल हिन्दू ही राष्ट्र निर्माण कर सकता है
- धर्मनिरपेक्ष छलावा है और यह मात्र मुस्लिम या ईसाई तुष्टिकरण है
पर्चा में आगे लिखा था-
हिन्दुओं को अपनी उदारता के कारण ही लगातार हानि उठानी पड़ रही है। मुसलमानों और ईसाईयों के पचासों देश दुनिया भर में है। हिन्दुओं का केवल एक ही देश भारत है लेकिन इसे भी धर्मशाला बना दिया गया है।
षडय़ंत्र पूर्वक हिन्दुओं को खत्म करने की साजिश रची जा रही है। पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिन्दू खत्म किया जा रहे हैं और जो लोग इस देश में हिन्दुओं के लिए लड़ता है उसे साम्प्रदायिक कहकर अपमानित किया जाता है।
संघ के विशेषज्ञ भी मानते है कि आज से पचास साल बाद हिन्दुओं की आबादी आधी हो जायेगी। हिन्दुओं के लिए हम दो हमारे दो का नारा देने वाले मुसलमानों के लिए हम पांच हमारे पच्चीस पर कुछ नहीं कहते बल्कि वोट बैंक बनाकर उनके हर गलत कार्यों को पनाह देते हैं। इसलिए चुनावों मे हिन्दुओं को एक मत होकर उन प्रत्याशियों को वोट देना चाहिए जो हिन्दू हितों की बात करता है।
पर्चे के अंत में यह भी लिखा था कि इसे फोटो कॉपी कराकर अधिक से अधिक वितरित करें।
पर्चा पढ़कर उस समय तो मैं भी असहज हो गया था लेकिन समय गुजरने के बाद याद करता हूं तो पाता हूं कि पर्चे में जानबुझकर वहीं बाते लिखी गई थी जिससे किसी एक राजनैतिक दल का हित साधने वाला था। ऐसा नहीं है कि इस तरह के पर्चे केवल हिन्दू वोट चाहने वाले या हिन्दूओं के ठेकेदार ही बंटवाते हैं। ऐसे पर्चे मुस्लिम, इसाई या दूसरे धर्म के लोग भी बंटवाते रहते हैं।
जिस तरह से हिन्दू संगठनों के पास कश्मीर, पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के आंकड़े होते हैं उसी तरह इसाई और मुस्लिम समाज के पास हिन्दुओं द्वारा प्रताडि़त किये जाने के आंकड़े पर्चे में छापकर वितरित किये जाते हैं।
मेरा दावा है कि सभी धर्मो के आंकड़े न केवल फर्जी होते है बल्कि तात्कालिक घटना को बढ़ाचढ़ा कर या उसे बड़े रूप में दिखाने के लिए ही फर्जी आंकड़ों को समाहित किया जाता है।
इस तरह के पर्चे पर उस दिन चर्चा के दौरान हासिम ने कहा था कि यह सब सत्ता में बने रहने की कोशिश का एक जरिया है।
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