नफ़रत और प्यार

नफरत और प्यार
राजधानी की कभी नहीं थमने वाली रफ्तार अब भी बरकरार थी। भाईचारे पर कभी कोई हावी नहीं हो पाया। जिससे भी मिलते उसके पास नई कहानी होती थी। इसलिए जब उस दिन जयस्तंभ में खड़े गपियाते लोगों में से संजय ने जब कहा कि यह चुनाव किसी जंग से कम नहीं । सरदार जी कहा चुप बैठने वाले थे उसने भी कह दिया कि आने वाले दिनों में लोग कहेंगे कुछ भी हो यार ऐसा मनोरंजन देने वाला प्रधानमंत्री फिर दुबारा नहीं मिलेगा। कॉफी हाऊस से उलट जयस्तंभ में इसी तरह की बात होती थी। हंसी हंसी में गंभीर मुद्दों पर कटाक्ष करने की सबकी अपनी शैली थी।
तभी तो प्रज्ञा ठाकुर के महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताये जाने पर जब कुछ भाजपा समर्थकों ने माफी मांग लेने के बाद मामला समाप्त हो जाने का दावा किया तो कमल ने बड़े धीरे से कहा था एक बात समझ नहीं आता कि गोडसे के समर्थक भाजपा लॉबी के ही क्यों होते हैं।
कमल के इस सवाल पर सब चौक गये थे हालांकि इसका ठीक ठीक जवाब भी वहीं मौजूद भाजपा या संघ के समर्थकों के पास भी नहीं था।
लेकिन यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब न होते हुए भी सबके पास है। महात्मागांधी की शहादत को 70 साल हो गए लेकिन उनके प्रति घृणा यदि आज भी किसी के मन में जीवित रखा जा रहा है तो इसका मतलब वह फैक्टरी ही नफरत की है जिसमें नफरत की नई नई परिभाषाएं सीखाई जाती है।
वैसे भी भाजपा या संघ के बड़े नेता भले ही यह न बोले लेकिन दूसरे या तीसरे दर्जे के नेता महात्मा गांधी पर प्रहार करते रहे हैं।
फिरोज इसलिए तो कहता है कि भाजपा या संघ का गुस्सा नेहरू और गांधी के लिए इसलिए निकलता है क्योंकि उन्होंने आजादी के बाद इस देश को अमन और तरक्की का जो रास्ता दिखाया है उस रास्ते में भाजपा के लिए सत्ता तक पहुंचना दूभर है। वे जानते है कि इस देश के सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न किये बगैर वे सत्ता में नहीं पहुंच सकते। चूंकि वे अपना गुस्सा जनता को तो नहीं दिखा सकते इसलिए वे नेहरू गांधी को निशाना बनाते हैं।
तभी संजय ने कहा था कि सत्ता नहीं पाने का आक्रोश इन पर इस कदर हावी है कि ये लोग नफरत की राजनीति पर ही भरोसा करते हैं। इनके दिमाग में गांधी नेहरू के प्रति इतना कुछ झूठ भर दिया जाता है और भरा जा रहा है कि महात्मा गांधी की तस्वीरों तक में आज भी गोलियां बरसाते हैं।
संजय की बात पर मुझे याद आ गया था कि महिने पहले पूजा शकुन पाण्डे नामक महिला ने महात्मा गांधी की तस्वीर पर गोलियां चलाते हुए गुब्बारे में रंग भरकर उस रंग को बहते हुए ऐसा प्रदर्शन किया था मानो वह सच में गांधी जी को मार रही हो।
साक्षी महाराज से लेकर पता नहीं कितने ही ऐसे लोग है जो गोडसे की जयंति या पुण्यतिथि मनाते हुए नजर आते हैं और इनमें वे ही लोग होते है जो भाजपा के नेताओं के साथ यदा कदा मंचो पर नजर आते हैं।
आखिर गांधी के प्रति इतनी नफरत की वजह क्या है? या फिर सत्ता के लिए गांधी पर प्रहार इनके लिए जरूरी हथियार है या भाजपा की राजनीति जिस फैक्टरी में तैयार होती है वहीं से ही इनमें नफरत भर दी जाती है? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब ढूंढने की जितनी भी कोशिश होती है लोग उलझते चले जाते हैं। गांधी चाहते तो भगतसिंह बच सकते थे? गांधी चाहते तो बंटवारा नहीं होता। गांधी के नेहरू प्रेम की वजह से सुभाष बाबू को कांग्रेस छोडऩा पड़ा। नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो देश का दूसरा ही रूप होता। नेहरू मुलसमान थे। इसलिए मुसलमानों को ताकतवर बनाने की कोशिश हुई। पता नहीं इस तरह के नफरत फैलाने वाले सवाल आजादी के 70 साल भी झूठ व मनगढ़त काल्पनिक तरह से आज भी चुनावों में उठाये जाते हैं और ये सारे सवाल इसलिए उठाये जाते है ताकि हिन्दू वोटो का धु्रवीकरण हो।
राजनैतिक हित के लिए नफरत फैलाकर कोई सत्ता पा भी ले तो क्या वह इस देश का विकास करने की सोच पायेगा? तथ्य और कथय के बीच का मैं ऐसा सच दोहरा रहा हूं जो सिर्फ और सिर्फ नफरत की फैक्टरी में ही पैदा की जाती है। गांधी की हत्या में कौन लोग शामिल थे और इसके पीछे का सच को लेकर सवाल आज भी तब ताजा हो जाते है जब गांधी के हत्यारे का महिमामंडन करने वाले एक खेमे विशेष से होते है।
इस देश में दर्जनों पार्टी है लेकिन वे कभी गांधी के हत्यारे का महिमामंडन नहीं करते? ये सवाल तो उठेगा ही।
प्रज्ञा ठाकुर के बयान को लेकर प्रधानमंत्री की नाराजगी क्या चुनाव के अंतिम चरण को बचाने की कोशिश नहीं थी। यदि वे वाकई में प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ नहीं करेगे की बात पर अडिग है तो फिर साक्षी महाराज को टिकिट क्यों दी गई।
गांधी जी इस देश के ही नहीं दुनिया के कई देशों के चहेते हैं। उनका देश की आजादी में योगदान अतुलनीय हैं। इनकी नफरत की राजनीति का यह आलम है कि एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी नहीं माफ करने की बात कहते है तो ठीक उसी समय उसके मंत्रीमंडल के सदस्य अनंत हेगड़े ट्वीट करते है कि मौजूदा बहस में गोडसे की आत्मा खुश हो रही होगी और ये वक्त अपराध बोध से बाहर निकलने का है।
लेकिन भाजपा खेमें के लोग यही तक नहीं रूकते है भाजपा के सांसद व नेता नतीन ललीन ने तो स्व. राजीव गांधी की तुलना घटिया तरीके से करते हुए कह दिया कि गोडसे ने सिर्फ गांधी को मारा, कसाब ने तो 72 लोगों को मारा और राजीव गांधी ने तो 17 हजार लोगों को मारा है, आप तय करे क्रूर कौन है? इसलिए सवाल यह है कि भाजपा के मोदी सरकार के दौरान गोडसे को महिमा मंडन करने वालों की संख्या बढ़ते क्यों जा रही है और मोदी जी के फालोअर लिस्ट के कई लोग गोडसे को भगवान मानते है आखिर इस तरह के लोगों को मोदी जो फालो क्यों करते हैं। पाटी भले ही भाजपा नेताओं के बयान को निजी बता कर पलड़ा झाड़ ले लेकिन क्या यह हत्या को जायज ठहराने की कोशिश नहीं है और इसी तरह से हत्या को जायज ठहराकर हत्यारों की महिमामंडन किया जायेगा तो फिर कानून का क्या होगा?
क्या मोदी सरकार के आने के बाद कानून को हाथ में लेने का नया खेल शुरू नहीं हुआ है। अखलाक से लेकर रोहित वेमूला सहित पूरे देश में मोदी सरकार के आने के बाद जिस तरह से गौ मांस को लेकर लिचिंग हुई वह किस तरह का संकेत है। क्या कानून को हाथ में लिये जाने की बढ़ती वारदात हमें किस ओर धकेल रही है।
गोडसे को लेकर जिस तरह से आरएसएस का रवैया रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। गोडसे को लेकर गांधीवध जैसी अवधारणा को पैदा किया गया। आखिर गांधीवध कहने का मतलब क्या है।
गांधी जी की हत्या को लेकर केन्द्रीय मंत्री अनंत हेगड़े का अपराधबोध से बाहर निकलने का मतलब क्या निकाला जाना चाहिए।
यदि इस इतिहास का निरीक्षण करें तो पायेंगे कि यह जरूर है कि जांच कमेटी ने गांधी की हत्या में संघ के हाथ होने से इंकार किया है लेकिन 11 सितम्बर 1948 को देश के तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की वह चिट्ठी भी महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि संघ के नेताओं के भड़काऊ भाषण के चलते कई जगह अप्रिय स्थिति निर्मित हुई और गांधी जी की हत्या के बाद कई स्थानों पर संघ के लोगों ने खुशियां मनाई और मिठाईयां बांटी।
बापू जैसी शख्सियत की हत्या के बाद संघ प्रमुख गुरू गोवलकर को गिरफ्तार किया गया वे 6 माह जेल में रहे और संघ पर प्रतिबंध भी लगाया गया। जिस सरदार पटेल को नरेन्द्र मोदी सहित लगभग पूरी भाजपा महान व्यक्ति बताते नहीं थकती उसी सरदार पटेल की चिट्ठी में जिस तरह से संघ की करतूत उजागर हुई है। क्या संघ को संदेह के घेरे में खड़ा नहीं करती कि वे नफरत की राजनीति करते है।
क्या सरदार पटेल जो भारत के गृहमंत्री भी थे। खुशियां मनाने, मिठाईयां बांटने या भड़काऊ भाषण देने की बात बगैर जानकारी के कह दी होगी।

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