राष्ट्रधर्म और धर्म


पाकिस्तान के बालाकोट के हमले के बाद तो राकेश ने भाजपा को इस तरह से पेश करना शुरू कर दिया मानों भाजपा के अलावा इस देश में दूसरा कोई राष्ट्रवादी ही नहीं है। वह चिखचिख कर करने लगा कि मोदी है तो मुमकिन है।
इस हमले के बाद बताया जाने लगा कि पाकिस्तान थर थर कांपने लगा है। पाकिस्तान बरबाद हो गया है और अब वह भारत पर आतंकवादी हमले का दुस्साहस नहीं करेगा। सीमा पार से गोलीबारी बंद हो जायेगी।
राष्ट्रवाद का उफान भाजपाईयों में सर चढ़कर बोलने लगा था लेकिन मुकेश ने कहा देखना पाकिस्तान कभी भी अपनी हरकत से बाज नहीं आने वाला है न सीमापार से गोलीबारी बंद होगी और न ही आतंकवादी गतिविधियां ही समाप्त होने वाली है।
मैने मुकेश से इसकी वजह पूछी तो उन्होंने बेबाकी से कहा कि जो देश 1971 में बुरी तरह पराजित हुआ हो। जिस देश के दो टुकड़े कर एक लाख सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा हो। यह एक ऐसा अपमानजनक स्थिति है जो उसे चैन से बैठने नहीं देगा। यही वजह है कि वह कभी पंजाब के रास्ते तो कभी कश्मीर के रास्ते भारत को परेशान करता है। मुकेश ने 80 के दशक के खालिस्तान समर्थकों को पाकिस्तान से मिलने वाली मदद का भी खुलासा करके रख दिया।
लेकिन राष्ट्रवाद का बुखार राकेश, निक्की, विनय, खाण्डे या राठी पर इस कदर हावी था कि वे किसी को भी देशप्रेमी या देशद्रोही घोषित करने लगे थे।
एक दिन जब विवाद जोर पकडऩे लगा तो मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा था कि राष्ट्रवाद हर व्यक्ति में होता है लेकिन इसका प्रदर्शन करना ही गलत है। मुंशी प्रेमचंद जैसे कितने ही महान लोगों ने राष्ट्रवाद को कोढ़ की तरह बताया है।
राष्ट्रवाद के नाम पर ही विश्वयुद्ध हुआ था और राष्ट्रवाद के नाम पर जब राजनैतिक फायदे की मुहिम शुरू होती है तो वह और भी खतरनाक हो जाता है।
यही वजह है कि जानबुझकर सत्ताधारी नेताओं के बयानबाजी उन्माद के स्तर तक पहुंचने लगा था लेकिन सरकार या हिन्दू के झंडाबरदार कोई भी सवाल सुनने को तैयार नहीं थे।
पूर्व सूचना के बावजूद पुलवामा में आरडीएक्स से लदी कार कैसे घूस गई। 40-45 जवान इस घटना में शहीद हुए थे। इतनी बड़ी चूक पर कोई भी सवाल उठाता उसे आसानी से देशद्रोही घोषित कर दिया जाने लगा।
इस पूरे घटनाक्रम को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा तो चुनाव आयोग से लेकर न्यायालय तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। मोदी के हाथों ही देश सुरक्षित रहेगा के इस ही वाले अवधारणा को प्रचारित किया जाने लगा लेकिन दुखद यह था कि मोदी राज में भी उरी पुलवामा सहित दर्जन भर से अधिक आतंकवादी घटनाएं हो चुकी थी। पाकिस्तान के द्वारा सैकड़ो बार सीमा पार से गोलीबारी होती रही।
यही नहीं कई राज्यों में नक्सली वारदात से लेकर लिचिंग की घटनाएं होते रही लेकिन जब राजनीति में सत्ता का रास्ता धर्म हो जाए तो देश की वे तमाम घटनाएं गौण कर दी जाती है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम न हो।
एक बार खुद संतोष जी ने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि भाजपा के हिन्दुत्व की राजनीति ने देश को ऐसे मुकाम पर खड़ा कर दिया है जो आने वाले दिनों में खतरनाक व भयावह परिणाम देंगे। आखिर कोई अपनी राजनैतिक सत्ता के लिए इस देश के 10 करोड़ से अधिक आबादी को कैसे हाशिये पर रख सकता है।
इन पांच वर्षों में देश के राजनैतिक दलों का डर उनके भीतर इस कदर बैठ गया था कि भाजपा के अलावा भी कोई दूसरा दल मुस्लिमों को अपना प्रत्याशी बनाने को तैयार नहीं था। तभी तो मुकेश कहता था कि क्या गांधी, सुभाष और सरदार पटेल ने इस तरह की भारत की कल्पना की थी। जिस देश में आधा दर्जन से अधिक धर्म के लोग आपसी भाईचारे और सद्भाव से रहते हो वहां किसी धर्म को सिर्फ राजनैतिक सत्ता के लिए निशाना बनाकर देश की प्रगति कैसे हो सकती है। यह ताना-बाना को समाप्त करने की सोच की वजह से भारत पचासो साल पीछे हो गया है और हासिम तो बेबाकी से कहता था कि जो लोग आज मुसलमानों को निशाना बनाने से खुश हो रहे है वे भूल रहे है कि इनके निशाने में हिन्दुओं के अलावा एक एक करके इसाई, सिख, बौध्द जैन और दूसरे लोग भी आयेंगे। क्योंकि उन्हें हिन्दुत्व के अलावा दूसरा कोई स्वीकार्य ही नहीं है।
भले ही हासिम ने यह बात मुस्लिमों को बनाए जा रहे निशाने के परिपे्रक्ष्य में कही हो पर यह गलत भी नहीं था क्योंकि आदमी जब हिंसक हो जाता है तो वह हिंसा के लिए नये नये बहाने और लक्ष्य ढूंढता है।
 मुझे भी लगता था कि हासिम की चिंता गलत नहीं है। इस नफरत की राजनीति को लेकर मैने कई बार समझाने की कोशिश की थी और ब्राम्हण कुल में पैदा होने के बावजूद मेरे लिए सब जाति और धर्म क्यों बराबर थे यह भी समझाने की कोशिश में अक्सर सभी को बताते रहा हूं कि जिस घर में सुबह की शुरूआत आरती से होती थी और हर शाम मंदिर या विवेकानंद आश्रम जाना लगभग सुनिश्चित था इसके बावजूद दूसरे धर्म को लेकर इतना उदार क्यूं हूं। कोसा या गीले कपड़े में भोजन तैयार होता था और दलित और मुसलमानों के साथ खेलने कूदने में भी पाबंदी थी। पाखाना घर के आंगन के कोने में होता था और इसके इस्तेमाल के बाद कपड़ों को गीला करना पड़ता था।
सच कहूं तो दादा-दादी के इस कठोर रवैये को लेकर मेरे अलावा घर के दूसरे लोगों में भी नाराजगी होती थी लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता था।
मुकेश ही नहीं मैने प्राय: सभी को बताया था कि मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है लेकिन मैं कक्षा 7वीं या आठवीं में रहा होऊंगा। घर के सामने ही आनंद समाज वाचनालय था ये वो वाचनालय है जिसका तार गांधी से जुड़ा है और इसका एतिहासिक महत्व छत्तीसगढ़ सरकार ने भी मान लिया है।
तो हां अक्सर इस वाचनालय में हम बाल भारती, चंपक या इसी तरह की दूसरी पुस्तकें पढ़ लेते थे। एक दिन बाल भारती की किताब में चुटकुले पढ़ रहा था कि एक चुटकुले ने मेरे जीवन की दशा दिशा और सोच को भी बदल दिया।
वह चुटकुला था सब तरफ हिंसा मारकाट हो रही थी, एक बाग में सेव के दो पेड़ इस पर बात कर रहे थे। तभी एक सेव के पेड़ ने दूसरे सेव के पेड़ से कहा - देखना एक दिन इस मारकाट के चलते सब कुछ समाप्त हो जायेगा और फिर इस दुनिया में हम सिर्फ सेव ही सेव बचेंगे। तो दूसरे सेव के पेड़ ने पूछा था कौन सा सेव? हरा वाला या लाल वाला?
सच कहूं तो इस चुटकुले ने ही मेरी सोच बदल दिया था इसलिए जब धर्म को लेकर बहस होती थी तो मैं निक्की या विनय को यह चुटकुला सुनाते हुए कहता था कि जब अमेरिका जैसे शिक्षित और विकसित माने जाने वाले देश में लोग काले-गोरे के नाम पर हत्या तक कर देते है तब धर्म के नाम पर झगड़ा सिर्फ आदमी के भीतर का हिंसा के अलावा कुछ नहीं है। उसे मौके की ताक रहती है और वह कभी धर्म या जाति तो कभी गोरे काले के बहाने बाहर आ जाता है। ऐसे में सिर्फ़ इस बीना पर हम किसी से नफरत कैसे कर सकते हैं कि वह मुस्लिम या हमारे धर्म का नहीं है।
लेकिन जिस बीज को ब्रम्हमुहूर्त में नफरत के खाद पानी से सींचा जा रहा हो वहाँ इस तरह की बाते ही बेमानी है या गाली खाने योग्य? मैने पहले ही कहा है कि लू शैतानी हवा होती है इसलिए जब इस तपती दुपहरी में प्रज्ञा ठाकुर को भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल से टिकिट दी तो मेरी धारणा को मैने और भी मजबूत पाया।
इसलिए जब इसकी मैने मुकेश और गुरूजी के सामने आलोचना की तो वे सहमत थे यहां तक कि सूरज कुमार भी इसे लेकर चिंतित थे। मामला तब बिगड़ गया जब प्रज्ञा ठाकुर ने शहीद हेमंत करकरे को लेकर अपनी सोच को अंजाम देते हुए कह दिया कि हेमंत करकरे की मौत उनकी श्राप की वजह से हुआ है और मैं तब हैरान रह गया जब संतोष जी जैसे सुलझे आदमी ने भी कह दिया कि प्रज्ञा ठाकुर के साथ जो कुछ हुआ वह गलत था इसलिए उसने ऐसा कहा है। लोकसभा के सभापति ने भी प्रज्ञा का बचाव इस तरह से किया था लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस ने जब प्रज्ञा के इस बयान की आलोचना की तो पूरी भाजपा प्रज्ञा के इस कथन को उनका निजी कथन बताते हुए पल्ला झाड़ लिया। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी को पांच हजार साल के हिन्दू संस्कृति से जोड़ते हुए हिन्दू आतंकवाद के मुंह में तमाचा करार देते हुए उम्मीदवारी को जायज बता दिया।
जब किसी की उम्मीदवारी जायज हो तब राजनैतिक नफा नुकसान के लिए भाजपा ने उसके बयानों से भले ही किनारा कर लिया हो पर एक ऐसा चेहरा को लाकर भाजपा ने राष्ट्रवाद को धर्म के साथ जोडऩे की कोशिश कर ली थी और प्रज्ञा की आलोचना को धर्म विरोधी ही नहीं बताया गया बल्कि राकेश जैसे लोगों ने तो एक कदम बढ़कर सोशल मीडिया में यहां तक कह दिया कि कोई भी हिन्दू जो प्रज्ञा की उम्मीदवारी का विरोध करता है वह अपनी डीएनए टेस्ट करा ले।
यानी असहमति को जिस स्तर पर ले जाने की कोशिश मौजूदा दौर में की जा रही थी वह देश को गर्त पर ले जाने वाला था। धमकी चमकी तो आम हो चली थी।
सरकार से सवाल पूछने का मतलब ही देशद्रोही ठहरा देने के इस दौर में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होने लगा था वह अब तक की राजनीति का सबसे विभत्स चेहरा था। स्वयं को जायज ठहराने के दौर में हिन्दूत्व और राष्ट्रवाद ने भाषा की मर्यादा की सारी सीमाएं लांध दी थी और इस बात पर सूरज कुमार को भी आपत्ति थी।
ऐसे ही मेरे एक पोस्ट ''आप दुनिया जीत लो लेकिन घर न संभाल पाओ तो सब बेमानी है में भक्तों की गाली गलौच का जब मैने जीक्र किया तो सूरज कुमार ने भी इस पर चिंता जताई लेकिन इस दिन पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया कि ब्रम्हमुहुर्त में जब आप नफरत का बीज बोओंगे तो उससे प्यार के फल की उम्मीद क्यों करते हो।
तब सूरज कुमार ने कहा कि क्या तुम कभी शाखा गये हो। एक बार शाखा जाकर देखो फिर कुछ कहना।
मैने बताया बहुत पहले मैं एक बार गया था। जहां दस या बारह तेरह साल के बच्चो को खेलकूद करवा रहे थे और मुझे जहां तक जानकारी है उन्हें बौद्धिक पाठ्यक्रम भी सिखाया जाता है। मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि सूरज कुमार ने कहा कि एक बार नहीं कई बार जाओ तब पता चलेगा।
मैं भी आवेश में आ गया था क्योंकि जब आपकी पूरी बात सुने बगैर ही निष्कर्ष निकाला जायेगा तो क्रोध स्वाभाविक था लेकिन मैने क्रोध को जज्ब कर मजा लेने के उद्देश्य से कह  दिया नौ से बाहर तेरह साल के बच्चों में समझ ही क्या होती है। इन अबोध मासूमों के दिमाग में नफरत बोते हो या वहीं सच बतलाते हो जिससे आपकी राजनीति सधती  है और आधा सच तो किसी भी झूठ से भी खतरनाक होता है। मेरे इस मजाक से सूरज कुमार उखड़ गये और उसकी आवाज ऊंची हो गई थी। वे कहने लगे थे एक बार शाखा जाओं तब पता चलेगा। सुनी सुनाई बात पर भरोसा करके बहस करना ठीक नहीं है। मैने फिर उसके क्रोध को हवा देते हुए कह दिया जिसे आप लोग शारीरिक व्यायाम कहते हो वह तो किसी रवेड़ चाल से कम नहीं है और मैने सालों शाखा जाने वालों को धुलमुल शरीर में देखा है।
मेरा इतना कहा था कि उसने मुझे सेक्यूलर कहते हुए हिन्दूओं का विरोधी तक कह दिया। वैसे भी इन दिनों सेक्यूलर को लेकर भी हिन्दू संगठनों में नकारात्मकता बढ़ी थी और कई लोग तो सेक्यूलरकर्ता जैसे शब्दो को इस्तेमाल विरोधी दलों के नेताओं के लिए कहने लगे थे। वैसे भी देश के प्रधानमंत्री के मन में विपक्ष के लोगों के प्रति सम्मान न हो तो आप उसके पार्टी के लोगो से कैसे और किस तरह उम्मीद रख सकते थे।
विपक्ष के हर विरोध को या हर मुद्दे को इन दिनों राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की जो प्रवृत्ति चलाई जा रही थी उसकी वजह से आरएसएस भी हाशिये में चला जा रहा था। यह अलग बात है कि आरएसएस नें खुलकर विरोध की क्षमता मुझे तो कभी नहीं दिखी। वह विरोध की बजाय धर्म और राष्ट्रवाद का मुद्दा हवा में उछालते रहता था जिसे लेकर राजनैतिक दलों में ही सिर फुटव्वल होते रहा है।
स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताकर देश में राजनीति करने के इस अद्भूत स्वांग ने कई युवाओं को अपने पक्ष में खड़ा कर लिया था। राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व के इस अनोखे खेल में आरएसएस स्वयं को पाक साफ बताने से गुरेज नहीं करता। स्वयं सेवकों की सादगी उनका स्वदेशी प्रेम और भारतीय संस्कृति की चिंता से भला कौन प्रभावित नहीं होगा।
यह अलग बात है कि इसके प्रभाव में काम करने वाली भाजपा के लिए यह तमाम मुद्दे केवल सत्ता के बाहर रहने तक की सीमित होते थे।
आजादी के सत्तर साल बाद भी भाजपा को देश में कई राज्यों में स्वीकार नहीं किया जा सका था। यही नहीं विधानसभा लोकसभा जैसे प्रतिस्ठित चुनाव में 2014 में जिस तरह से कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा उठाकर उसने कांग्रेस, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, कम्यूनिष्ट या दूसरे दलों के नेताओं को भाजपा में लाकर टिकिट दी उससे स्पष्ट है कि भाजपा में खुद के विचारधारा को लेकर दिवालियापन है शून्यता है। तभी तो जब एक बार कमल ने जब कहा कि इनके करम आज भी इतने अच्छे नहीं है कि लोकसभा में अपने दम पर चुनाव लड़कर सरकार बना ले। आज भी उन्हें अपनी सत्ता तक पहुंचने के लिए छोटे-छोटे दलों का इस्तेमाल करती है या दूसरे दलों के भरोसे ही चुनाव लड़ती है।
इस बात पर उस दिन निक्की बहुत नाराज हुआ था और कहा था कि कांग्रेस का यह ढंग ही उसे 44 तक ले आया है। हम छोटे दलों को सम्मान देते है इसलिए साथ रखे हैं लेकिन उसके पास भी आजादी के इतने सालों बाद भी दक्षिण के राज्यों पूर्वोत्तर उड़ीसा बंगाल की शून्यता पर कोई ठोस कारण नहीं होता था। हां वह आगे देखना, चिंता न करो सब में भगवा लहरायेगा कह कर बहस से भाग जाता था।
मैने पहले ही कहा था कि संघ से जुड़े लोग या तो बहस से भाग जाते है या फिर बहस को धर्म और आस्था से जोडऩे की कोशिश करते हैं। हर मौके पर उनका यह रवैया मुझे उनके प्रति एक नया संशय में डाल देता था। वे लोग मुस्लिम या दूसरे धर्मों के बेतुकापन या बुराईयों को मुद्दा बनाकर राष्ट्रवाद से जोड़ते थे लेकिन संघ के कारनामों से उपजे उन्माद को वे लोग राष्ट्रवाद या हिन्दुत्व से जोड़ते।

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