कट्टरता और श्रेष्ठता
छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है 'पेलिहा संग पंगनहा हारय या मुर्गी की एक टांग ।
कट्टरता के लिए यह कहावत पर्याप्त है या नहीं इस पर जिसे विचार करना है करता रहे। लेकिन मुझे लगता है कट्टरता भी एक तरह से उन्माद की तरह हिंसक शब्द हैं जो कभी भी किसी भी हाल में समाज के लिए उचित नहीं है। खासकर धार्मिक कट्टरता तो समाज को जोडऩे की बजाय तोडऩे का काम ही किया है। वह दूसरे धर्म को कम अपने धर्म के लोगों को अधिक तोड़ता है और समाज में जो बेतुकापन दिखाई देता है उसकी ज्यादातर वजह धार्मिक कट्टरता ही है और यह धार्मिक कट्टरता जब राजनीति में स्थान पा लेता है तो समस्या विकराल हो जाती है।
मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के समय से ही राजनैतिक सत्ता के लिए धर्म का इस्तेमाल किया जाने लगा।
सावरकर का तो साफ तौर पर मत था कि राजनीति का हिन्दूकरण और फिर हिन्दुओं का सैनिकीकरण किया जाना चाहिए। सैनिकीकरण का मतलब ही कोई साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। सावरकर का हिन्दुत्व कट्टरता की वजह से भारतीय जनमानस को राजनैतिक रूप से स्वीकार नहीं हो पाया। तब सावरकर से कुछ अलग हटकर आरएसएस ने राजनीति के हिन्दुकरण की शुरूआत की थी। जनसंघ के दौर में लोकसभा की 35 सीटे तक जीतने में सफल हो गई थी।
मुस्लिम लीग भी लगभग इसी ढर्रे पर चलता रहा। राजनैतिक फायदे के लिए मुहम्मद अली जिन्ना ने तो यहां तक कह दिया था कि मेरे मजहब और अकीदा के मुताबिक मैं एक बदकार और गिरे हुए मुसलमान को भी गांधी से बेहतर मानता हूं। यह अलग बात है कि विवाद बढऩे पर मुहम्मद अली ने स्वामी परमानंद को पत्र लिखकर अपनी बात कही कि हकीकत वही है, जो मैने जुबानी तौर पर बयान की थी। उसके बावजूद कुछ मुसलमान दोस्त लगातार मुझ पर इल्जाम लगा रहे है कि मैं हिन्दुओं और गांधीजी का इबादत गुजर हूं। इन शरीफ आदमियों का असली मकसद मुझे मुसलमान अवाम, खिलाफत कमेटी और कांग्रेस से अलग करना है। इसके लिए वे मुझे ऐसे पेश कर रहे हैं कि जैसे मैं अपने मजहबी असूलों में महात्मा गांधी का पैरो बन चुका हूं। इसलिए मैने कई मौको पर यह एलान किया है कि मजहब के मामले में मेरा अकीदा वहीं है जो किसी सच्चे मुलसमान का होता है। लेकिन मैं पुरजोर तरीके से एलान करता हूं कि आज न तो इस्लाम, न हिन्दू, यहूदी, मनसरानी और न ही पारसी मजहब के नुमाईदे गांधी जी जैसे ऊंच किरदार और अखलाकी मयार वाली कोई शाख्सियत पेश कर सकते हैं। यही वजह है कि मैं उनके लिए इतना ज्यादा एहतयाम और प्यार रखता हूं।
लेकिन अकीदा और असल अखलाक में बहुत बड़ा फर्क होता है। इस्लाम का पैरौ होने के नाते मैं इस्लाम को किसी भी और ऐसे मजहब से अजीमतर मानने के लिए पाबंद हूं जिसे गैर इस्लामी मजहब के पैरो तस्लीम करते हैं।
गांधीजी के इबादतगार के इल्जाम को गलत साबित करने की इस जिन्नाई कोशिश के क्या अर्थ निकाले जाने चाहिए?
लेकिन एक बात तो तय है कि श्रेष्ठता और कट्टरता की इस लड़ाई से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ होगा।
क्योंकि शास्त्रों में अति सर्वत्र वर्जिते की बात कही गई है और जब कोई अपनी श्रेष्ठता को अतिवाद के भंवर में ले जाता है तो विनाश के अलावा कुछ नहीं होता। इसी श्रेष्ठता की वजह से हिटलर ने पूरे विश्व को युद्ध में झोंक दिया था। आर्यन और जर्मन सबसे श्रेष्ठ नस्ल है और बाकी को जीने का कोई अधिकार नहीं है यह सोच ही गलत और विनाशकारी है क्योंकि एक बार यह बात किसी के दिलो दिमाग में बैठ जाए तो वह दूसरो को हिकारत की दृष्टि से देखेगा ही।
और यह श्रेष्ठता की सोच जब सत्ता हथियाने के लिए इस्तेमाल हो तो अराजकता और खून खराबे के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। यही वजह है कि इस देश में तमाम कोशिशों के बावजूद न हिन्दुत्व का एजेंडा को स्वीकार किया गया और न ही मुस्लिम लीग ही सफल हो पाया।
क्योंकि इस देश का सामाजिक ताना बाना इस तरह से आपस में उलझकर रह गया है कि कोई भी मजहबी कट्टरता इसे सुलझा नहीं सकता और जो भी इस ताने बाने को अलग करने की कोशिश करता है यह और मजबूती से उलझ जाती हैं।
हालांकि अपनी श्रेष्ठता के लिए राजनीति में दूसरे ही तरह की भाषा अपनाई गई। मुसलमानों को भरमाया गया कि वे गरीब हैं, उनके साथ भेदभाव बरता जाता है और उन्हें सताया जाता है। तो हिन्दुओं को भरमाने इतिहास के अत्याचार को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया गया और समस्यात्म वर्ग के रूप में दिखाया जाने लगा।
इस नकारवाद की राजनीति से देश को ही नहीं सभी धर्म के लोगों को नुकसान पहुंचा है। इस राजनीति ने आम लोगों की प्राथमिकताओं को हाशिये पर डाल दिया। अपनी राजनीति साधने के लिए जिस तरह धर्म की राजनीति को सत्ता का रास्ता चुना गया। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सब कुछ उल्टा पुल्टा होने लगा।
आंदोलन बुनियादी जरूरतों पर होना था लेकिन आंदोलन शहबानों, तीन तलाक या फिर राममंदिर या तिरंगा के लिए होने लगा।
सच तो यह है कि आजादी के बाद मुसलमानों की स्थिति में भी कॉफी सुधार हुआ है। लेकिन मीडिया की भूमिका भी राजनैतिक दलों में समाहित हो जाने से मामला ज्यादा तूल पकडऩे लगा। गलत अवधारणा को फैलाने में दोंनो ही पक्ष इस कदर हावी रहे कि सच दूर होता चला गया या सच जानने की कोशिश ही नहीं की गई जो नेताओं ने कहा वह मान लिया गया और नेताओं ने भी अपने कथन को प्रमाणित करने साधुसंतो या मौलानाओं का इस्तेमाल किया।
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