आज पूरे विश्व की निगाह जब भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव पर टिकी हो तब हमारे नेताओं की भाषा ने भारत की पहचान बनाने की जो कोशिश की है वह बेहद शर्मनाक है। किसने किसे गाली दी, किसने किसे छोड़ दिया इस पर चल रही प्रतिस्पर्धा के बीच भाषा की मर्यादा ही नहीं बची है। गांधी के इस देश में इस बार के चुनाव में सारी मर्यादाएं लांघ दी जायेगी इसका संकेत तो पहले ही मिलने लगा था। लेकिन तब कौन जानता था कि सत्ता संघर्ष के इस महाभारत में सब कुछ समाप्त कर दिये जाने की तैयारी कर ली गई है। हालांकि नफरत की ताकत को हर बार प्यार के सामने झुकना पड़ा है इसलिए संसद में जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गले लगाते हुए जब कहा कि आप गाली देते रहो हम तो प्यार करते रहेंगे तो कुंभर नारायण की कविता की वह पंक्ति कईयों के जेहन मे रही होगी- टक अजीब सी मैं दूं इन दिनों मेरी भरपूर नफरत करने की ताकत दिनों दिन क्षीण पड़ती जा रही है अंग्रेजो से नफरत करना चाहता जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया तो शेम्स पीयर आड़े आ जाते जिनके मुझपर न जाने कितने अहसान है मुसलमानों से नफरत करने चलता तो सामने गालिब आकर खड़े...
बदलाव... यह वक्त घड़ी की सुईयों को उल्टा घुमाने का भी है क्योंकि दो हजार चौदह में भाजपा को जो सत्ता मिली थी उसकी प्रमख वजह अन्ना-बाबा द्वारा कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया हुआ आन्दोलन भले रहा हो लेकिन भाजपा की जीत में प्रमुख भूमिका निभाने में वे लोग भी थे जो भारतीय जनता पाटी का चेहरा बन चुके थे। इनमें लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, शत्रुघन सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू, अरूण शौरी, रमेश बैस, यशवंत सिंहा, कलराज मिश्र, शांता कुमार, मनोहर पर्रिकर जैसे और भी दर्जनों नाम थे जो या तो देश में भाजपा के चेहरे थे या अपने अपने प्रदेश में। इन चेहरों का प्रभाव से इंकार करने का मतलब क्या होना चाहिए और ये चेहरे दो हजार उन्नीस में क्यों नहीं चुनाव लड़ रहे हैं। दरअसल मोदी ने जब सत्ता संभाली तो उनके सामने पाटी के भीतर भी बड़ी चुनौती थी क्योंकि मोदी पहली बार केन्द्र की राजनीति में आये थे जबकि इससे पहले इन तमाम लोगों ने केन्द्र की राजनीति में अपने को स्थापित कर चुके थे। ऐसे में इनकी सरकार को लेकर कोई भी बात महत्वपूर्ण मानी जाती थी और असंतुष्ट सांसदों का जमावड़ा भी...
फैसला। फैसला तो आया लेकिन ऐसा फैसला जिस पर खुद भाजपा समर्थकों व सत्ता में बैठे लोगों को भरोसा नहीं हो रहा था। वे यह जान तो रहे थे कि किस चतुराई से तमाम रंगो में से केसरिया और हरा को उभार दिया गया था कि बाकी रंग झूठ और अफवाह के बादल तले दब जाये। देश को दो रंगा करने की कोशिश एक बार फिर सफल हो गया था। यह वक्त यह सवाल पूछने का नहीं है कि यह दो रंग हमेशा रहेगा। सवाल तो यह है कि अदृश्य सतरंगी तो सफेद था जिस पर दोनों रंगो को जोड़कर रखने का माद्दा था वह कैसे छूट गया। और यदि उसे जानबुझकर हटा दिया जायेगा तो क्या लोकतंत्र बेरंग नहीं हो जायेगा। जहां भी वह अदृश्य सतरंगी नहीं है वहाँ के हालात क्या है? क्या सिर्फ दो रंगो के सहारे ही लोकतंत्र जिन्दा रह पायेगा। लेकिन वर्तमान का सच तो यही है कि इन दो रंगों के सहारे ही लोकतंत्र को मजबूत बनाने के भ्रम को जिन्दा रखने की कोशिश की जा रही है। आप किसी को एक बार और बहुत हुआ तो दो बार ही बेवकुफ बना सकते हैं। बार-बार बेवकूफ आप नहीं बना सकते। ऐसे में जब एक बार फिर यह फैसला आया है तब क्या आने वाले वक्त में स्वयं को साबित करना चुनौती नहीं होगा? इस देश के लोकतंत्र...
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