कट्टरता और श्रेष्ठता -3

धार्मिक कट्टरता मेरे लिए स्याह सुरंग में बैठे उस व्यक्ति की तरह था जो अपने वजूद बचाने ईश्वर से लगातार विनती भी करता है और जरा सी आहट या अनहोनी की निर्मूल आशंका पर हमालवर हो जाता है।
मुस्लिम शासको का अत्याचार आज भी राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन जाता था। यह बात कोई भी मानने को तैयार नहीं था या किसी ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि राजतंत्र का मलतब ही गलत था इसलिए तो लोकतंत्र की स्थापना हुई है।
हिन्दूवादी संगठनों ने स्वयं को राजनैतिक सत्ता में स्थापित करने जिस राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व की दुहाई देते थे उसमें कहीं न कहीं ईसाईयों का धर्मान्तरण और मुस्लिमों का शरीयत कानून को जिम्मेदार बताया जाता था।
यह भी सच है कि इन दिनों बहु विवाह और ज्यादा बच्चा पैदा करने से मुस्लिम भी पीछे छूट चुका था वे समय के साथ शिक्षित हो चुके थे और वे भी दो से ज्यादा बच्चे न तो पैदा करते थे और न ही चार शादियां करते न ही हममें से किसी को कोई मुस्लिम दिखा था। लेकिन भाजपा की राजनीति की शुरूआत ही कई बार इसी मसले से शुरू होती थी। मुस्लिमों की बढ़ती आबादी से हिन्दुत्व को खतरा दिखाया जाता था और इसके समर्थन में प्रवीण तोगडिय़ा से लेकर साक्षी महाराज जैसे लोग हिन्दुओं को भी अधिक बच्चा पैदा करने के लिए ललकारते या पुरस्कार देने तक की घोषणा करते थे।
इस मुद्दे को हवा देने में लगे लोग तब और ज्यादा आक्रमक हो जाते थे जब शरियत के मुताबिक परिवार नियोजन कानून को नहीं मानने का बेतूका बयान जारी होता या मुस्लिम नेता भी इसे अपने धर्म पर प्रहार बताते। सच तो यह है कि रायपुर जैसे शहर में नई पीढ़ी में शायद ही कोई मुसलमान दो बच्चे से ज्यादा पैदा करने वाले मिल जाए। लेकिन मुस्लिम नेताओं का हर मामले को धर्म से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति भी भाजपा को मौका देते रही।
साकिर ने एक बार कहा कि गुजारा भत्ता जैसे मामले को धर्म पर हमला बताने की कोशिश के चलते ही भाजपा जैसे पार्टियों  को हम मौका देते है।
हासिम कहता है कि आज कोई भी महिला बुरका पहनना पसंद नहीं करती या ज्यादातर परिवार में बुरका नहीं के बराबर रह गया है। मुस्लिम औरतों को बगैर बुरका के बाजार में खरीददारी करते देखा जा सकता है।
हासिम कहता है कि सच है कि आज भी ऐसे मुस्लिम घर परिवार है जहां बुरके को लेकर कठोर नियम है और इन घरों में आज भी यह माना जाता है कि महज शादी हो जाने भर से कोई शरम और बेहज्जती से बरी नहीं हो जाती।
लेकिन बुरके को जिस तरह से धर्मिकता से जोड़कर विरोध किया जाता है वह गलत भले ही न हो पर सच है कि बदलते भारत में बुरके को लगभग हर घर से बाहर करने की कोशिश शुरू हो गई है। बहुत से मुस्लिम परिवार की औरतें तो बुरके का उपयोग केवल धार्मिक प्रायोजन में करती है।
इसलिए तो साकिर ने उस दिन जब कहा कि शहरों में नकाब या स्कार्फ पर प्रतिबंध के फैसलों का विरोध भी इसी तरह का विरोध है। लेकिन साकिर ने इतना कहने मात्र से अकिल नाराज हो गया था और साकिर को खूब खरीखोटी सुनाई थी।
तीन तलाक को लेकर भी इसी तरह का मसला खड़ा हो गया था और इसे भी धार्मिक हमला बताने वालों की जमात खड़ी हो गई थी। एक तरफ मुस्लिम महिला तीन तलाक के खिलाफ न्यायालय का दरवाजा खटखटा रही थी तो दूसरी तरफ इस मामले को भाजपा राजनैतिक मुद्दा बनाकर मुस्लिमों के बहाने हिन्दुओं पर अपनी पकड़ मजबूत करने में लगी थी।
वैसे तो मैं किसी धार्मिक मसलों में दूसरे धर्म के हस्तक्षेप या प्रहार को गलत मानता हूं लेकिन जब एक दिन नौशाद ने कहा कि इस पर काूनन बनने में क्या दिक्कत हैं। मौलाना बेवजह इसे क्यूं तुल दे रहे हैं। समय की मांग पर अडंगा लगाना बेतुकापन है तब मुझे लगा कि आखिर यह मामला एक नारी के सम्मान के साथ जुड़ा है। तब भला इस पर कानून बनाये जाने में क्या दिक्कत हैं। हासिम भी इस मामले में निकाह फिल्म का हवाला दिया तो नौशाद ने पाकिस्तान टीवी की एक ऐसी घटना का जिक्र किया जो सभ्य समाज के लिए शर्मिन्दा होने वाला था। उसने अरूण शौरी की लिखी किताब फतवे अलेख और उनकी दुनिया का हवाला देते हुए बताया कि तीन तलाक को लेकर निकाह फिल्म में तो कुछ भी नहीं बताया है इससे भी ज्यादा मार्मिक तो पाकिस्तान टेलीविजन पर प्रसारित एक सीरियल का था जिसमें एक आदमी ने उस औरत को तलाक दे दिया जो उसकी पत्नी की भूमिका निभा रहा था। दुर्भाग्यवश जो औरत उसकी पत्नी की भूमिका निभा रहा था, वह उस आदमी की वास्तविक पत्नी थी।
इस सीरियल में जैसे ही उस आदमी ने तलाक की घोषणा की कुछ धार्मिक लोगों ने इसे मुद्दा बना दिया कि तलाक की घोषणा के कारण उन दोनों का निकाह समाप्त हो गया है। यहां तक कह दिया गया कि एक बार विवाह समाप्त हो गया तो वापसी का एक मात्र तरीका है कि वह औरत दूसरे व्यक्ति से निकाह करे और वह शादी वास्तविक सहवास द्वारा पक्की करे और दूसरा पति फिर तलाक दे तब ही उसे मूल पति वापस मिल सकता हैं। यह मामला भयंकर रूप लेने लगा था और फरमान जारी करने वालों के पास सहीद अल बुखारी का वह हदीस भी था जिसमें आईशा ने इस तरह के मसले को लेकर पूछती है इस वर्णन के तहत अईसा कहती है ए इसूले अल्लाह रिफायत ने मुझे अंतिम रूप से तलाक दे दिया है जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। उसके बाद मैने अब्दुलर्रहमान से निकास कर लिया है जो नामर्द निकला।
रसूले अल्लाह ने कहा तुम वापस जाना नहीं जब तक अबुलर्रहमान तुम्हारे साथ सहवास न कर ले।
नौशाद से मिली इस जानकारी से मैं भौचक्क रह गया तब मैने उससे कहा कि यह तो उस औरत के साथ अन्याय हुआ तो उससे कहा कि सहीद अल बुखारी के हदीस में तलाक को लेकर कई तरह के सवाल हैं।
इसी तरह के कई मामलों का जब मैं मोमिनपारा में जाकर शिया समुदाय के जानकारों से टीवी  सीरियल की घटना के  संबंध में पूछा तो जावेद ने बताया कि शादी समाप्त नहीं होगी।
लेकिन जावेद ने एक और जानकारी दी कि कई फिरको में तो सिर्फ इतना ही कह देने को तलाक देने के बराबर माना गया है कि तुम्हारे मामले तुम्हारे हाथों में हैं।
इस नई जानकारी से मैं हैरान हो गया और पूरा जानकारी की जिज्ञासा में मैने जब जावेद को इसका खुलासा करने कहा तो उन्होंने बताया कि मानलों कोई मर्द अपनी पत्नी को अपने पांवो पर खड़ा करने या भविष्य बनाने में प्रोत्साहित कर रहा है और वह इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर देता है तो कोई इसे एक तलाक तो कोई तीन तलाक की श्रेणी में मानते हैं। जावेद ने तो यहां तक कहा कि गुस्से में दिया गया या अनजाने में बोला गया तलाक भी उतने ही घातक ढंग से प्रभावी होते हैं। हालांकि उन्होंने फतवा ए रिजविया में गुस्से में दिये तलाक में छूट की भी बात बताई।
जावेद खुद कहता है कि शरीयत में सब कुछ पूरी तरह साफ नहीं है। अस्पष्टता  की वजह से ही उन्हें कई बार दूसरे धर्म के लोगों के सामने मजाक बन जाना पड़ता है। जबकि पास ही बैठे अख्तर ने तो यहां तक कह दिया कि उलेमा इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करते है।
जावेद और अख्तर के किस्से धर्म को जिंदा रखने तमाम बेतुकेपन के बावजूद ईमान और आवलाक पर मजबूत पकड़ बनाए रखने की कूबत को साबित करती थी। बहु पत्नी, तीन तलाक, गुजारा भत्ता, बुरका, पढ़ाई, लिखाई, पहनावा बुतो की पूजां से लेकर पता नहीं कितने डरा देने वाली बात दोनों ने कहते हुए यह भी जोड़ा था कि अब दुनिया बदलने के साथ मुस्लिम भी बदल रहे हैं लेकिन राजनीति इसे बार-बार चिपका कर रखने को मजबूर करती है और वे भी मानते थे कि धर्म की राजनीति कट्टरता से उन्माद तक पहुंच जाती है और इससे न धर्म का भला होता है न देश का। परिवर्तन सृष्टि का नियम है और इसे स्वीकार जो लोग कर लेते है वह समाज व देश में ऊंचा स्थान पाते है वे अपनी बात को सही ठहराने जाकिर हुसैन से लेकर अब्दुल कलाम आजाद और फिल्मी कलाकारों के नाम तक गिनाते थे।

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