उन्माद -3
लू शैतानी हवा होती है, जो किसी को नहीं बख़्सती और हिन्दूत्व की जो लू चलाने की कोशिश हो रही थी वह आरएसएस की हवा से अलग सावरकर के हिन्दूत्व की हवा अधिक थी। लेकिन इस बात को न सूरज कुमार मानने को तैयार थे और न ही संतोष जी ही स्वीकार कर रहे थे। अकिल के लिए तो यह एकदम ही असहज था। उसने दो चार लोगों को छोड़ बाकी से बातचीत ही बंद कर दी थी और दूसरे टेबलो से आने वाली आवाजों को वे स्वयं के लिए व्यंग्य बाण चलाने की बात कत कह देते थे। यह भी सच है कि अकिल दूसरों के बनिस्बद अपने धर्म के प्रति ज्यादा कट्टर थे और वे ऐसे मसलो पर जल्द ही क्रोधित हो जाते थे।
अकिल साफ कहता था कि जब धर्म में इज्तिहाद की अनुमति ही नहीं है तो फिर इस पर चर्चा ही बेकार है। इज्तिहाद का अर्थ है मूल ग्रंथों की व्याख्या करने का अधिकार। और पैगम्बर साहेब के मृत्यु के बाद कलमा ने यह फरमान जारी किया कि इज्तिहाद के दरवाजे बंद हो चुकी है। कलमा ने ऐसा करने की वजह बताई कि चूंकि ऐसा कोई पाक मुसलमान नहीं बचे है जो विश्वसनीय व्याख्या कर सके इसलिए आगे से ये फायदा रहेगा कि मूल ग्रंथो का अक्षरश पालन किया जायेगा।
हालांकि इस बात से सलीम हसन इत्तेफाक नहीं रखते थे और वे कहते भी थे कि आज जो हमारे समाज में बेतुकापन पैदा हो रहा है उसकी वजह यह निषेध ही है जिसका कोई औचित्य नहीं हैं लेकिन अकिल इस बात से नाराज हो जाता था और वे अतित के प्रति झूठी श्रद्धा को अपनाने के पीछे तर्क पर तर्क देते हुए कुतर्क पर आक्रोश हो जाते थे या पलायन कर जाते थे।
हम सभी जानते थे कि अकिल बेहद ही संवेदनशील है और किसी पर तकलीफ आने पर सबसे पहले खड़ा वही दिखाई देता था इसलिए उसके सामने ऐसी बहस से परहेज किया जाता था जो अकिल को क्रोधित करे।
लेकिन हाल के दिनों में मोदी सरकार के हिमायती जानबूझकर ऐसे मसलो को उठाते थे ताकि अकिल की भावना को ठेस लगे।
पहले तो अकिल के पीठ पीछे मजाक उड़ाया जाता था लेकिन इन दिनों सामने-सामने व्यंग्य के बाण छोड़े जाने लगे थे। ऐसा लगता कि हर अलग टेबल पर बैठे लोग अपनी बात दूसरे टेबल में बैठे लोगों को सुनाकर कह रहे है। आवाज जानबुझकर ऊंची रखी जा रही है ताकि विवाद बढ़े लेकिन यहां आने वाला कोई भी शख्स अनपढ़ जाहिल तो था नहीं। सब पड़े लिखे लोग थे इसलिए उन्माद के खेल को समझ कर अनदेखी कर देते थे या फिर सिगरेट पीने के बहाने बाहर निकल जाते थे।
अकिल के बारे में एक बात और बिना लाग लपेट के कही जा सकती है कि उसमें सबका भला करने की सिर्फ भावना ही नहीं थी वह ताकत भी थी। लव मैरिज करने वाले घर से तिरस्कृत कितने ही लोगों की उसने मदद की। बिमारी से लेकर किसी के परिवार में होने वाली गमी पर भी वह मदद के लिए खड़ा रहता था। उसने कभी धर्म या जाति के आधार पर फैसले नहीं लिये। आधी रात को मदद के लिए वह खड़ा हो जाता था। और दोस्तो की मदद के फेर में वह घर-परिवार के प्रति थोड़ी लापरवाह हो जाता था। शायद यही वजह है कि वह परिवार में थोड़ा गैर जिम्मेदार माना जाता था। हालांकि वह अपनी तरफ से कोई चूक नहीं करता था।
इन दिनों अकिल पर पारिवारिक जिम्मेदारी भी बढ़ गई थी बावजूद वह काफी हाऊस आता था तो इसकी वजह सालो की बैठनी थी। मित्रों का मोह और दुनिया समाज में आ रहे बदलाव की चिन्ता थी। एक बार उसने कहा भी अब मोहल्ले का वातावरण भी पहले जैसा नहीं रहा। लोग एक दूसरे को शक की नजर से देखने लगे है और भरोसा भी टूटने लगा है।
क्या यह सब इन पांच सालो में हुआ है। या पहले से ही सब वैसा ही था और इन पांच सालों में खुलकर सामने आ गया।
यह एक ऐसा सवाल था जिसका जवाब कोई सुनने को तैयार ही नहीं था।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार आने के पहले भाजपा और कांग्रेस की राजनीति को लेकर कोई बहस नहीं होती थी। पहले भी बहत होती थी लेकिन तब बहस में उत्तेजना से ज्यादा तर्क होते थे। एक दूसरे के प्रति सम्मान और भाषा की मर्यादा को खास ध्यान दिया जाता था। तब विवाद की स्थिति के पहले विषय बदल जाते थे। लेकिन मौजूदा वक्त में कोई झूकने को तैयार नहीं है। आखिर यह सब अचानक कैसे हो गया जबकि भाजपा के एक मंत्री की करतूत और अभद्रता के किस्से पहले ही सुनाये जाते रहे हैं और तब भी आरएसएस के चरित्र निर्माण के दावे पर प्रहार किया गया था।
दरअसल एक बार एक राज्य मंत्री का एक अखबार के दफ्तर में अचानक आगमन हुआ। उस समय संपादक वहाँ नहीं थे तो उन्हे संपादक के कक्ष में बैठने कहा गया और चूंकि संपादक का घर पास में ही था तो चपरासी को बुलाने भेजा गया। मंत्री की आगमन की खबर सुन संपादक भी आ गये और जैसे ही उन्होंने अपने कक्ष का दरवाजा खोला तो उस मंत्री को अपनी कुर्सी में बैठा पाया वे उलटा पांव लौटते हुए बड़बड़ाते हुए एडिटोरियल कक्ष की कुर्सी में बैठ गये। पता नहीं कैसे कैसे लोगों को मंत्री बना दिया है कहां बैठना है इसकी भी तमीज नहीं है और वहीं से उन्होंने चपरासी को अपने कक्ष से मंत्री को बाहर भेजने का आदेश दिया। मंत्री जैसे ही उनके सामने आये तो संपादक ने चपरासी को पानी चाय लाने का आदेश देते हुए यहां तक कह दिया कि वे घर जाकर गंगाजल लाये और कमरे में छिड़काव करे। यह घटना पटवा शासनकाल की थी।
हालांकि इसी तरह की घटना भास्कर में भी हुई जब स्व. विधाचरण शुक्ल के एक कट्टर समर्थक ने संपादक की कुर्सी में बैठने की भूल कर दी थी तब उस संपादक ने न केवल उस ताकतवर समर्थक को खरी खोटी सुनाई बल्कि उसकी शिकायत विधाचरण शुक्ल को भी की थी।
पता नहीं मंत्री वाले मामले में संपादक ने आरएसएस या पटवा जी से शिकायत की थी या नहीं।
इसके अलावा भी और भी ऐसे किस्से अक्सर सुनाये जाते थे।
यहां तक कि आरएसएस के शाखा पर भी सवाल उठते रहे लेकिन इससे पहले कभी भी विरोध के स्वर ने भाषा की मर्यादा को नहीं लांधा था। यहां तक कि भाजपा के मंत्रियों की करतूत हो या फिर संगठन मंत्री के संबंधो को लेकर किये जाने वाली टिका टिप्पणी भी नाराजगी या क्रोध का कारण नहीं बन सका था।
रमन सरकार में हावी अफसरशाही और कांग्रेसियों की घुसपैठ के अलावा भाजपा नेताओं के करतूत पर भी कोई विशेष विवाद होने के बजाय छत्तीसगढ़ के आम लोगों को होने वाली तकलीफों को लेकर सार्थक चर्चा होती रही।
कश्मीर के मामलो में जरूर बहस कुछ विवादित हो जाता था लेकिन वह भी भाषा की मर्यादा में ही रहा।
उन्माद तो मोदी सरकार के आने के बाद या 2014 के चुनाव के साथ ही शुरू हुआ था। गौहत्या से लेकर आतंकवाद, भारत माता की जय, वंदमातर्म जैसे मुद्दे को लेकर जानबुझकर बहस छेड़ी जाती थी और फिर भाजपा-कांग्रेस को नीचा दिखाने की कोशिश में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी और इसका दुष्परिणाम आज सबके सामने था। टेबल तो अलग हुए ही वे दिल भी अलग हो गये थे। बहस का स्तर नीचे चला जा रहा था।
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