उन्माद-2



वह शाम अजीब था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। बाहर हवाएं गर्म जरूर थी लेकिन कॉफी हाऊस के एयर कंडीशन में बैठे लोग सुकून से काफी की चुस्कियों के साथ अपने में मशगुल थे।
मैं भी एक टेबल पर अकेले ही बैठा था। सोच रहा था कि कॉफी मंगाऊ या किसी के आने का इंतजार करूं। अकेले कॉफी पीने की मेरी आदत नहीं रही लेकिन पिछले कुछ माह में मुझे तीन-चार बार कॉफी अकेले ही पीना पड़ा था। ऐसा पिछले 15-20 सालों में भी तीन-चार बार नहीं हुआ था लेकिन सब कुछ सहज दिखने के बाद भी कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था। एक-दूसरे से कटे-कटे से लोग, सामना होते ही असहज महसूस करने लगे थे।
थोड़ी देर में संतोष जी आ गये। उनका आना अच्छा लगा। कभी रोज आने वाले संतोष जी इन दिनों बहुत कम आते थे। हालांकि वे इसकी वराह उनकी अपनी पारिवारिक दिक्कत बताते थे। कुछ भी हो समझदार और अनुभवी संतोष जी की मैं ही नहीं अमूमन यहां के बहुत से लोग बेहद इज्जत करते थे। एक स्थानीय अखबार के संपादक होने के अलावा वे कई बड़े अखबारों में काम कर चुके थे।
हालांकि मेरा उनसे कॉफी हाउस से पहले का संबंध या परिचय कुछ भी कहा जा सकता है। उनसे मेरी एक अखबार में नौकरी के दौरान हल्की सी झड़प भी हो चुकी थी लेकिन उस मामले को न कभी उन्होंने तूल दिया था और न मैने ही मन में रखा था।
खैर संतोष जी अपने चिरपरिचित शैली में नजदीक आये तो मैने उठकर उन्हें प्रणाम किया तो बैठते हुए उन्होंने पूछ लिया क्या चल रहा है? किसकी सरकार बना रहे हो।
अमूमन संतोष जी जब भी आते थे इसी तरह के सवालों के साथ बातचीत शुरू होती थी। कॉफी का ऑर्डर भी इस बीच दिया जा चुका था। मैने भी कह दिया कि आप ही बताइये भैय्या। मुझे तो नहीं लगता कि मोदी सरकार फिर लौट पायेगी।
संतोष जी ने सीट कम होने के बाद भी किसी भी तरह सरकार बन जाने की बात कहते हुए कहा कि इस बार दक्षिण, उड़ीसा और बंगाल में हिन्दी भाषी राज्यों में होने वाले नुकसान की भरपाई हो जायेगी। हालांकि इस भरपाई की मुझे कोई भी वजह नजर नहीं आ रही थी। लेकिन संतोष जी इसके लिए तैयार ही नहीं थे तो इसकी वजह पिछले डेढ़ दो साल में मोदी को लेकर उनका प्रेम, प्रेम तो नहीं कहना चाहिए विश्वास ज्यादा उपयुक्त होगा।
वे पिछले कई चर्चाओं में मोदी के पक्ष में दलील देते रहे है। अचानक उनके इस परिवर्तन से मैं अवाक हो जाता हूं क्योंकि पत्रकारिता के क्षेत्र में मैं अब तक जिस संतोष जी को जानता था उनका कभी भी किसी राजनैतिक दलों के प्रति झुकाव नहीं रहा था। बेबाकी से खबरों को लिखना या समीक्षा करने के लिए जाने जाते थे। लेकिन मोदी सरकार के प्रति उनका झुकाव साफ दिखाई पड़ता था और वे मेरे आंकलन को सिरे से खारिज करते हुए कई बार ऐसे ऐसे तर्क गढ़ते थे जिसका प्रतिवाद करने की बजाय मैं चुप रहना बेहतर समझता था।
संतोष जी में आये इस परिवर्तन से बहुत से लोग अवाक थे क्योंकि उनकी जो निष्पक्षता की छवि बनी थी वह छवि उनके तर्कों से बेमेल हो जाता था। मै इसलिए भी हैरान था कि जो व्यक्ति कभी आरएसएस के एक आपबीती को बेबाकी से बताते थे वे इन दिनों उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे।
संतोष जी ने ही एक बार बताया था कि वे किस तरह एक स्वयंसेवक के करतूत पर नाराज होकर नौकरी छोड़ देने की बात कही थी। संतोष जी के मुताबिक आडवानी जी की यात्रा व सभा की रिपोर्टिंग के लिए उन्हें जिम्मेदारी दी गई थी। वे दिन भर यात्रा व सभा की रिपोर्टिंग करते और उसे शाम तक अखबार के दफ्तर में भिजवा देते थे। सराईपाली तक की यात्रा के बाद उन्हें लौट आना था। यात्रा व सभा के दूसरे दिन जब वे दफ्तर पहुंचे तो संपादक ने बड़े प्यार से उन्हे बुलाया और कहा कि हम तुमको जिम्मेदार व्यक्ति समझते थे लेकिन तुमने बागबाहरा की सभा का खबर नहीं भेजी। ऐसी लापरवाही की उम्मीद तुमसे नहीं थी। संतोष जी ने प्रतिवाद करते हुए बताया कि उन्होंने खबर बनाकर मैनेजर और यही दफ्तर के ऊपर रहने वाले आरएसएस के उस स्वयंसेवक के हाथ में लिफाफा दे दिया था ताकि समय पर अखबार में प्रकाशित हो सके इसलिए इसमें उनकी न कोई गलती है और न ही उन्होंने कोई लापरवाही ही किया है। इस बात के दौैरान ही वह स्वयंसेवक सामने आ गया और जब संपादक ने उनसे लिफाफे के बारे में पूछा तो वे साफ मुकर गये।
संतोष जी को इतना गुस्सा आया कि वे फट पड़े। कहा मुझे ऐसे झूठे लोगों के साथ काम नहीं करना। मैं अभी नौकरी छोड़कर जा रहा हूं।
इसके बाद संतोष जी गुस्से से बाहर निकले तो संपादक जी पीछे पीछे दौड़े और किसी तरह संतोष जी को मनाने में सफल भी हो गये थे।
संतोष जी इस घटना का जिक्र बड़े आराम से करते हुए कहते थे। ऐसा कई बार हुआ जब संघ के स्वयंसेवकों की कथनी और करनी का अंतर से उन्हें झुंझलाहट होती थी। जिस संपादक के सामने यह घटना हुई वे भी संघ से जुड़े थे और आमतौर पर उन्हे लोग मिठलबरा कहते थे।
ऐसे ही कॉफी हाउस में संघ से जुड़े कई लोगों की आमद थी हालांकि उनमें से कई लोग भाजपा की राजनीति कर रहे थे और संघ को महान बताने में लड़ाई तक कर लेते थे। सूरज कुमार ही एक ऐसा शख्स था जो संघ की गलतियों या कमियों पर कभी कभी बेबाक हो जाता था लेकिन बाकी लोग तो कमियों को भी रणनीति बताकर झूठ पर परदा डालने की कोशिश करते रहते थे।
ऐसा नहीं है कि संघ को लेकर बहस नहीं होती थी लेकिन संघ के समर्थक  बहस से भाग जाने की कोशिश करते थे या फिर बहस को धर्म या हिन्दूत्व से जोड़कर आस्था में उतर आते थे।
सूरज अक्सर कहा करता था कि एक बार संघ की शाखा और बौद्धिक शिविर में जाईये। सब का भ्रम दूर हो जायेगा।

टिप्पणियाँ

  1. मेरे साथ अक्सर ऐसा हो रहा है कुछ मित्र लोग है जो चार्टर्ड एकॉन्टेड है उसके टेबल हर समय कोई न कोई बैठा रहता है ।उन लोगो को व्यवसाय से संबंधित बाते करते बहुत कम ही देखा।वहाँ मेरे पहुचते ही मोदी जी को लेकर मेरे ब्रेन वाश करने में लग जाते ऐसे कई तर्क देते कि उनके हाँ में हाँ मिला सकूँ।फिर वह मेरा उदाहरण देकर किसी और का ब्रेन वाश करने लग जाते ।व्यवसाय की बात बहुत कम यही बातें अधिक होते रहते है ।अनन्तः मुझे वहाँ से जाना ही पड़ता।

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