आत्म-मुग्ध -2


तारीख सिर्फ उनसे प्यार करती है जो उस पर हावी होते है और वह दौर नरेन्द्र मोदी से चाहत का दौर था। वह एक अहम शख्यियत बन चुका था। कांग्रेस से न उम्मीद लोगों की वे उम्मीद थे। अच्छे दिन आयेंगे इस जुमले को उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया था। नेहरू गांधी को निशाना बनाते हुए वह कांग्रेस मुक्त भारत का जब वे दावा करते थे तो बहुत से वे लोग भी डर जाते थे जिन्हे राजनीति से कोई लेना देना  नहीं है लेकिन लोकतंत्र के लिए दमदार विपक्ष की भूमिका की जरूरत महसूस करते थे।
इसलिए भाजपा की जीत के बाद आसमान छूती जन उम्मीद के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बने तो भाजपा और आरएसएस के अलावा दूसरे हिन्दू संगठनों ने यह जयघोष कर दिया कि आजादी के 70 साल बाद पहली बार हिन्दू प्रधानमंत्री बना अब हिन्दू राज की राह में कोई बाधा नहीं होगी।
यह जयघोष ने अच्छे दिन आने की उम्मीद ही नहीं बढ़ाई बल्कि कांग्रेस की राजनीति से नाउम्मीद हो गये लोगों की आंखो में भी चमक पैदा कर दी। सब तरफ इस जीत का जश्न था। हर किसी को लग रहा था कि अब इस देश में राम राज्य की कल्पना सरकार हो जायेगी। नरेन्द्र मोदी अपने वादे के अनुरूप न केवल विदेशों से कालाधन लायेंगे बल्कि भ्रष्टाचारियों को सलाखों के पीछे डाल देंगे। हर साल दो करोड़ लोगों को न केवल रोजगार मिल जायेगा बल्कि किसानों के हित में स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू कर दी जायेगी। आतंकवाद समाप्त हो जायेगा और पाकिस्तान थर-थर कांपने लगेगा। आसमान छूती इस उम्मीद को जिलाये रखने की कोशिश में नरेन्द्र मोदी ने जब पहली बार सांसद की सीढिय़ों को अपने माथे से लगाया तो इस बात को प्रचारित किया गया कि संसद उनके लिए क्या मायने रखता है। यानी संविधान ही महत्वपूर्ण है।
शुरूआत में दिल्ली और बिहार को छोड़कर नरेन्द्र मोदी किसी करिश्माई नेतृत्व से कम नहीं थे। लोगों को अपने जद में लेने की वाकपटुता ने विरोधियों को चुनावों में चित कर दिया था। वे अब भी कांग्रेस और क्षेत्रिय दलों के खिलाफ तीखा हमला करते और कांग्रेस मुक्त नये भारत की कल्पना में लोगों की अच्छे दिन आयेंगे की उम्मीद को जिन्दा रखने में लगातार कामयाबी का राज्य दर राज्य परचम लहरा रहे थे और इस दौर में भाजपा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कांधे से कांधा मिलाकर चल रहे थे।
मोदी जो कहते है वही सच है और वही करते है का विश्वास विरोधियों की आवाज को मजाक बनाकर रख दिया था। लगातार जीत से मोदी सरकार ही नहीं पूरी भाजपा भी उत्साहित थी ऐसे में नोटबंदी की अचानक घोषणा कर दी गई। नोटबंदी की घोषणा के दौरान इसके फायदे गिनाते हुए दावा किया गया कि इससे न केवल कालाधन पकड़ा जायेगा बल्कि नकली नोटों का चलन बंद हो जायेगा और आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट जायेगी।
इस फैसले का भाजपा विरोधियों ने जब विरोध किया तो कहा गया कि सारे भ्रष्टाचारी और देशविरोधी ताकत इसका विरोध कर रहे हैं। मोदी का जादू बरकरार था और उससे उम्मीद अब भी लोगों ने हंसते हंसते झेला
यही नहीं नोटबंदी की लाईन में लगने के दौरान न केवल सौ से ज्यादा लोगों की मौत भी हुई और लाईन के दौरान होने वाले हंगामे के दौरान पुलिस ने जमकर लाठी बरसाई। इस अमानवीय घटनाक्रम के बाद भी अच्छे दिन आने की उम्मीद कायम रही।
विरोधियों की चालों को मात देने की कोशिश हुई इधर राहुल गांधी नोट बदलवाने लाईन में होने वाली परेशानियों को देश के साथ सांझा करने की कोशिश की तो उधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मां भी लाईन में लगी। दोनों ही मामले किसी नाटक के समान खारिज कर दिया गया। इस बीच मोदी सरकार के कार्यक्रमों से उत्साहित हिन्दू संगठनों और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने विरोध की राजनीति को दबा देने का खेल शुरू कर दिया। सरकार से सवाल करने का मतलब देशद्रोही होने लगा। गाय मांस के नाम पर बवाल मचने लगा और मुसलमान घिरे जाने लगा। हत्या तक हो गई। मामला तूल पकडऩे लगा तो नरेन्द्र मोदी को हस्ताक्षेप करना पड़ा।
गंगा सफाई का ढिढोरा पिटा गया। गंगा विकास प्राधिकरण का नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में गठन किया गया लेकिन इस प्राधिकरण की पूरे पांच साल में कोई बैठक ही नहीं हुई। इस बीच मोदी की छवि बनाने का जबरदस्त उपक्रम हुआ कहा गया कि वह रात में कुछ ही घंटे सोते है पहली बार देश को अठ्ठारह घंटे काम करने वाला प्रधानमंत्री मिला है जिसे हर पल सिर्फ देश की चिंता रहती है। गरीब चायवाले का देश के प्रति समर्पण अजब है उसने देश की खातिर पत्नी को छोड़ा। समर्थक उनकी पत्नी का नाम दशोदा होने और छोडऩे जाने को लेकर भगवान महावीर जैन और भगवान बुद्ध से तुलना करने लगे।
समर्थक इस तरह से नरेन्द्र मोदी को सिर पर चढ़ा रखे थे मानों 2014 में देश को प्रधानमंत्री नहीं कोई अवतारी पुरूष मिला है जो न कोई गलती कर सकता है और न ही उनकी कोई आलोचना ही हो सकती है। इसलिए जिन्होंने भी नरेन्द्र मोदी की रीति नीति की आलोचना की उसे मजाक बनाते हुए देशद्रोही की उपाधि तक से नवाजा गया।
गौ मांस की वजह से होने वाले मॉब लिचिंग का मामला हो या जे एन यू का मामला हो देशद्रोही का प्रमाणपत्र बांटने का सिलसिला शुरू हो चुका था। सच कहूं तो पांच सालों में सबसे ज्यादा विदेश यात्रा करने वाले प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी की पहचान रहेगी। यह अलग बात है कि इस विदेश यात्रा में अचानक पाकिस्तान पहुंचकर नवाब शरीफ की मां का पैर छुआ और प्रधानमंत्री रहते अमेरिकी वीजा नहीं मिलने के अपमान के चलते प्रधानमंत्री बनते ही निजी कार्यक्रमों में अमेरिका जाना भी शामिल है।
हालांकि उनके अमेरिका जाने को लेकर लोगों में यह भी चर्चा रही कि उनको अमेरिका जाने की इतनी चाह थी और वहां जाने इस कदर मरे जा रहे थे कि निजी कार्यक्रम आयोजित करवाकर पहुंच गये।
पाकिस्तान दौरे के बाद उरी में आतंकवादी घटना ने देश को हिला दिया और इसे लेकर विपक्ष भी हमलावर की भूमिका में आ गया। मोदी सरकार पर पाक को सबक सिखाने का दबाव बढऩे लगा। विरोधी सरकार के ढुलमुल रवैये को लेकर तीखी आलोचना कर रहे थे ऐसे में सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक कर पाक को अपनी मंशा जाहिर की।
लेकिन उरी हमले को लेकर पाकिस्तान का रवैया बेहद नाकारात्मक था। पाकिस्तान को सबूत चाहिए था इस बीच पाकिस्तान की जांच दल को भारत आने की अनुमति दे दी गई लेकिन जांच दल में आईएसआई के एजेंट के शामिल होने को लेकर मोदी सरकार की फिर जमकर आलोचना हुई।
सर्जिकल स्ट्राईक के बाद मोदी सरकार से ज्यादा उनके समर्थक उत्साहित थे और सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत को लेकर एक बार फिर राजनीति उफान लेने लगा। समर्थकों ने सर्जिकल स्ट्राइक को 56 इंजी सीना से जोड़ा लेकिन न तो कश्मीर में हालात ही सुधर रहे थे और न ही पाकिस्तान और आतंकवादियों की हरकतें ही रूक रही थी सीमा पार से गोलीबारी और आतंक लगातार जारी था।
मोदी सरकार की आलोचना तो कश्मीर में मेहबूबा के साथ मिलकर सरकार बनाने और फिर सरकार गिर जाने को लेकर भी हुई। सरकार बनाने को लेकर गोवा सहित कई राज्यों में खरीद फरोख्त का आरोप भी मोदी सरकार पर लगा लेकिन मोदी के प्रशंसकों को अभी भी उम्मीद थी कि अच्छे दिन आयेंगे।
इसलिए जब सरकार के रवैये से नाराज सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने जब प्रेसवार्ता ली तो समर्थक उन्हीं को दोषी करार देने लगे। यहां तक कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को उपराज्यपाल के द्वारा परेशान करने और केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देने का आरोप जब सीधे नरेन्द्र मोदी पर लगाया जाने लगा तो भी मोदी समर्थक हमलावर हो गये थे। मोदी समर्थकों की न केवल भाषा अमर्यादित होती बल्कि गाली गलौच के साथ देशद्रोही का प्रमाणपत्र बांटने से भी कोई परहेज नहीं था।
यही नहीं संवैधानिक संस्थानों पर बढ़ते हस्ताक्षेप से सीबीआई का विवाद सड़क पर आ चुका था हर जगह गुजरात कैडट या गुजराती अफसरों की नियुक्ति का आरोप भी सबूतों के साथ आने लगा। यही नहीं पीएमओ के भीतर भी विवाद शुरू हो गया था। यही नहीं लोगों का यहां तक दावा था कि पीएमओं को संघ नहीं विवेकानंद इंटरनेशनल फाउण्डेशन चला रहा है और यह अजित डोभाल की कंपनी है।
राममंदिर निर्माण को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद का मोदी सरकार पर अलग दबाव बढ़ रहा था। साधु संत बैठके लेने लगे थे। विश्वहिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगडिय़ा तो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विषवमन करने लगे लेकिन इसे दोनों के बीच पुरानी कोई अदावत से जोड़कर दिखाने की कोशिश हुई और इस कोशिश में प्रवीण तोगडिय़ा विश्वहिन्दू परिषद से बाहर कर दिये गये।
मंदिर मामले को लेकर जब न्यायालय में तारीखें बढऩे लगी तो मोदी समर्थक राममंदिर बनने में विलंब के लिए कांग्रेस और न्यायालय को ही दोषी ठहराने लगे।
वैसे भी चुनाव नजदीक आ रहा था और मोदी सरकार की लोकप्रियता में भारी गिरावट आने की बात होने लगी थी। भाजपा के भीतर भी सरकार की वापसी को लेकर न केवल संदेह जताया जा रहा था बल्कि कई लोग खुले आम मोदी सरकार की आलोचना करने लगे थे।
ऐसे हालात में कश्मीर के पुलवामा में आरडीएस से लदी गाड़ी ने आतंक का जो धमाका किया उससे चालीस जवानों के चिथड़े उड़ गये। मोदी सरकार के रहते देश सुरक्षित हाथों में होने का दावा तार तार हो चुका था। पूर्व सूचना के बाद भी आरडीएक्स से लदी गाड़ी कैसे पहुंची और जांच में कहां चूक हुई ऐसे कई सवाल उठे जिसका सरकार के लिए जवाब देना मुश्किल हो गया।
इस हमले को लेकर लोगों का गुस्सा चरम पर था। विपक्षी दल भी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए पूरी तरह हमलावर हो गई थी। हालांकि मोदी सरकार के पांच साल के दौरान दर्जन भर आतंकवादी हमले हुए है लेकिन सरकार के लिए राहत की बात यह रही कि सभी हमले कश्मीर में ही हुए।
लेकिन पुलवामा के हमले ने देश को ही नहीं मोदी सरकार को भी हिला दिया। सरकार पर पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने और हमला करने के लिए कहा जाने लगा। दोनों देशों की सीमाओं पर तनाव प्याप्त था। पाकिस्तान लगातार भारत को उकसाने सीजफायर का उल्लंघन करता रहा है। ऐसे में सेना ने जब पाक में जाकर एयर स्ट्राईक को अंजाम दिया तो मोदी समर्थकों का नारा फिर गुंजायमान होने लगा। मोदी है तो मुमकिन है।
चुनाव सर पर आ चुका था ऐसे में पुलवामा ने मोदी सरकार के लिए संजीवनी का काम किया और हारती हुई बाजी में एक बार फिर जीत दिखने लगा तो पूरी सरकार ने राष्ट्रवाद और मोदी के हाथो देश सुरक्षित जैसे नारों को अमली जामा पहनाया। क्या किसी सरकार के दो चेहरे होने चाहिए? क्या संसद में कुछ और संसद के बाहर कुछ और होना चाहिए?
मौजूदा वक्त में यह सवाल उठाया जाना जरूरी इसलिए है क्योंकि संसद के भीतर और बाहर जिस तरह से अलग अलग रवैया अपनाया जा रहा है वह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।
संसद का मतलब मौजूदा वक्त में लोगों के दिमाग में जिस रूप में बैठने लगा है वह हंगामा और मनोरंजन के अलावा कुछ नहीं है। कितने ऐसे सत्र है जहां देश की बुनियादी जरूरतों को लेकर सार्थक चर्चा होती है। सत्ता पक्ष की दादागिरी और विपक्ष की आवाज  को या सुझाव अपने स्वाभिमान से जोड़कर दबाने की कोशिश ने राजनीति की परिभाषा ही बदल दी है।
बीते पांच सालों में संसद की कार्रवाई पर नजर डाले और सोचे कि इस देश ने क्या पाया और क्या खोया तो ये जानकर हैरान हो जायेगे कि सब कुछ खोता चला गया है।
प्रधानमंत्री की गरिमा तो हमने खोई ही है। विपक्ष के सदस्यों को सम्मान देने की गौरवशाली परम्परा को भी हमने तोडऩे का काम किया है। सत्ता के दम में कोई कहां तक जा सकता है वह भी देखने को मिला है। देखने को तो राहुल गांधी का गला मिलना
फिर आंख मारना भी मिला।
महिलाओं को आरक्षण से लेकर वे तमाम जरूरी बिल लटका दी गई जो लोकतंत्र को और मजबूत करता या आम लोगों के लिए नई सौगात लेकर आता।
विपक्ष से बात ही नहीं करने का सियासी निर्णय ने संसद की कार्रवाई में जबदस्त रूकावटे पैदा की।
प्रधानमंत्री ने यहां तक कह दिया कि विपक्ष उन्हें काम ही नहीं करने दे रहा है। यह एक तरह से विपक्ष की मौजूदगी को गैरजरूरी बताने की कोशिश नहीं तो और क्या है? जबकि लोकतंत्र के जिन्दा होने का असली सबूत विपक्ष ही है।
बहुमत के बाद भी यदि कोई प्रधानमंत्री यह कहे कि विपक्ष उन्हें काम नहीं करने दे रहा है तब इसे क्या कहा जाए। क्या यह सरकार की नाकामी नहीं है? या यह भी कहा जा सकता है कि यह खुद की कमजोरी को छुपाने का नुस्खा मात्र है।
हर साल संसद की कार्रवाई पर करोड़ों रूपये खर्च होते है और यह पैसा देश का होता है और लोक संसद सिर्फ देश चलाने नहीं लोगों के हितों के लिए कार्य करने के लिए भी चुनते है ऐसे में शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों पर कोई पांच साल यूं ही निकाल दे तो फिर ऐसी सरकार के बारे में क्या किया जा सकता है।
याद कीजिए 2013 में संसद का वह सत्र जब मनमोहन सिंह की सरकार पर शिक्षा का स्तर गिराने का आरोप लगाते हुए भारतीय जनता पाटी ने न केवल हंगामा किया था बल्कि संसद तक चलने नहीं दिया था। तब विश्वविद्यालयों की विश्व रैंकिंग में टॉप के सौ विश्वविद्यालय में भारत के सिर्फ दो विश्वविद्यालयों का नाम था वह भी नीचे के पायदान में।
संसद में भीतर और बाहर इस मुद्दे को उठाते हुए भाजपा ने दावा किया था कि उनकी सरकार आयेगी तो ऐसी नीति बनाई जायेगी जिससे भारत के विश्वविद्यालय का स्तर न केवल सुधरेगा बल्कि दुनिया में पहचान बनेगी लेकिन मोदी सरकार के इन पांच सालो में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर क्या योजना बनाई गई। कहीं चर्चा तक नहीं की गई।
ऐसे कितने ही मामले है जब सरकार के संसद के बाहर और भीतर के चेहरों में फर्क को साफ देखा और महसूस किया जा सकता है।
राफेल सौदे में कैग की जो रिपोर्ट संसद में पेश की गई वैसी रिपोर्ट इससे पहले रक्षा सौदो में कभी नहीं पेश की गई। कीमतों की जगह में गुप्त नम्बरों के प्रयोग को सरकार की किस पारदर्शिता से जोड़ा जाना चाहिए।ये ऐसे सवाल है जिसका किसी के पास जवाब नहीं है और यह जवाब नहीं होता ही लोकतंत्र के लिए चुनौती है.
यदि ईमेल वाली बात या बादल की वजह से रडार नहीं पकडऩे वाली बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जगह यदि राहुल गांधी बोले होते तो आप अन्दाजा नहीं लगा सकते कि क्या कुछ नहीं होता।
बीते पांच सालों में देश ने क्या कुछ नहीं देखा। दिल्ली राज्य की सत्ता में काबिज अरविन्द्र केजरीवाल को लेकर भाजाप-कांग्रेस दोनों का रवैया नकारात्मक रहा। उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री केजरीवाल की लड़ाई सड़कों तक आ गई और मोदी समर्थकों की नजर में 67 सीट पाने वाली आम पाटी को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा।
बिहार में जिस नीतिश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर भारतीय जनता पाटी के राज्यों में चल रहे विजय अभियान को रोका था उसी नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। यानी कल तक भाजपा के आम कार्यकर्ता जिस नीतिश को स्पेशल मीडिया में गाली देते थे वही नीतिश भाजपा के साथ आने पर पुन: तारीफ के काबिल हो गये।
लोकसभा के उपचुनाव में भाजपा को लगातार पराजय झेलनी पड़ी यहां तक कि गोरखपुर जैसी सीट भी उसे गंवानी पड़ी। 282 सीट जीतने वाली भाजपा 270 तक फिसल गई।
राहुल गांधी को पप्पू साबित करने आई टी सेल और सोशल मीडिया ने वीडियों में जमकर कांट छांट की आलू से सोना बनाने का मीडियो मोदी कार्यकाल का सबसे वाहियात वीडियों माना जा सकता है। वास्तव में राहुल ने यह बात नरेन्द्र मोदी के द्वारा किये गए अच्छे छिन आयेंगे के संदर्भ में कही थी लेकिन सच से परे इसे राहुल गांधी की सोच बताने में वे लोग भी शामिल थे जो समाज में प्रतिष्ठित माने जाते थे।
राज्यों के चुनावों में भाजपा भले ही बड़ी पाटी न हो लेकिन सरकार बनाने में उसका कोई सानी नहीं था। कम सीट पाकर भी वह जोड़तोड़ से सरकार बनाने में सफल हो जाती थी और इसका पूरा श्रेय अमित शाह की रणनीति को देते हुए ऐसा प्रचारित किया मानों यही भाजपा की नैतिकता है। चाल चेहरा चरित्र की बात हो या राजनैतिक सुचिता की बात हो सब कुछ समाप्त होने के कगार पर था। विरोधियों का विरोध का कोई मतलब ही नहीं रह गया था और विरोध करने वालों को सरकार की बजाय आईटीसेल और सोशल मीडिया में सक्रिय मोदी समर्थकों के द्वारा इस तरह से दिया जाने लगा मानों भाजपा के पास असीम ताकत है लेकिन कर्नाटक चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। जनता दल के सात मिलकर कांग्रेस ने एक बार फिर भाजपा कार्यकर्ताओं के उस घमंड को तोड़ दिया जो मोदी-शाह की जोड़ी को अपराजये मानकर चल रहे थे।
पंजाब में तो भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा और सत्ता में वापसी का सपना धरा का धरा रह गया।
इसके बाद पांच राज्यों में हुए चुनाव को सेमीफाईनल की तर्ज पर प्रचारित किया गया इन पांच राज्यों में से तीन पर राज्यस्थान को छोड़कर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में पिछले पन्द्रह वर्षों से भाजपा काबिज थी।
कांग्रेस से सीधे मुकाबले में कभी हार का मुंह नहीं देखने का दावा चरम पर था। लेकिन यह सेमीफाईनल भाजपा बुरी तरह हार गई। छत्तीसगढ़ में तो वह पन्द्रह सीट पर आ गई। जबकि मध्यप्रदेश और राजस्थान में मुकाबला नजदीकी था। मध्यप्रदेश में जोड़तोड़ की राजनीति में भी कांग्रेस ने बाजी मार ली।
लेकिन पाटी के भीतर मोदी और शाह की ताकत बरकरार थी। नीतिन गडकरी जरूर इस ताकत तो चुनौती देने की अवरोध रूप से कोशिश की। यहां तक कि पाटी से किनारे किये गये लालकृष्ण आडवानी से लेकर किसी भी वरिष्ठों ने इस सेमीफाइनल में भाजपा की चौतरफा हार पर कुछ नहीं बोला। शत्रुहन सिन्हा की बातों पर पहले ही तवज्जों देना बंद कर दिया गया था और वे भाजपा से हट गये।
वैसे तो भाजपा से मोदी-शाह की रीति नीति को पसंद नहीं करने वाले कई स्टारों ने पाटी छोड़ी। शत्रुघन सिन्हा के अलावा नवजोत सिंह सिद्धू, यशवंत सिंह जैसे कई नाम है लेकिन मोदी की ताकत ने कई लोगो की जुबान छिन ली। राजभर, कुशवाहा जैसे लोग अपनी पाटी सहित एनडीए से अलग  हो गए।
सत्ता का जो रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है वहां भी जबरदस्त उथल पुथल हुआ और तीसरे-चौथे नंबर में झूल रही भाजपा ने देश के सबसे बड़े इस सूबे पर जबरदस्त जीत हासिल की। इस जीत का ही परिणाम था कि कट्टर विरोधी समाजवादी पाटी और बहुजन समाज पाटी में गठबंधन हो गया और इसका प्रयोग जब लोकसभा के उपचुनाव में सफल रहा तो इसे स्थायी रूप दिये जाने की कोशिश भी लोकसभा चुनाव में सफल हो गया।
लोकसभा चुनाव के पहले प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति में पर्दापण सबसे महत्वपूर्ण घटना रही। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की इस पोती को इंदिरा के रूप में देखने की कोशिश भारतीय राजनीति के सफर का अनूठा मामला है। प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का कमान देने के बाद उत्तप्रदेश की राजनीति में जो तूफान आया वह पूरे चुनाव में चलता रहा। प्रियंका के भाषण और कार्यशैली से लोग प्रभावित भी होने लगे और कांग्रेस में एक वर्ग राहुल की बजाय प्रियंका को प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगा। बीते पांच सालों में जिन नेताओं ने सुर्खियां बटोरी और अपना जलवा बरकरार रखा उसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का नाम सबसे ऊपर है। मोदी सरकार का विरोध करते हुए दोनों नेता गठबंधन की राजनीति के हीरों के रूप में देखा जाने लगा है हालांकि नवीन पटनायक को आज भी केन्द्र की राजनीति में कोई रूचि नहीं है लेकिन ममता बेनर्जी ने जिस तरह का तेवर दिखलाया है वह परेशान कर देने वाला है।

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