अल्प-विराम -2

कल बीस अप्रेल को पालाघर में तीन साधुओं की भीड़ ने हत्या कर दी । अख़लाक़ से पालाघर के इस सफ़र से किसका ख़ून नहीं खौलेगा ? हम कैसा देश बना रहे हैं , न्याय पालिका पर सवाल उठाते उठाते हम सड़क पर न्याय ढूँढने लगे और जब अपनी बारी आइ तो उसकी निंदा करने लगे , आख़िर नफ़रत की बीज तो हमी ने बोया है , क्या देश ऐसे ही चलेगा ? वैसे मेरी बात कई लोगों को बुरा लग सकता है लेकिन न्याय के लिए हम बापू को भी सड़क पर घसीट लाए थे झूठ और अफ़वाह फैलाकर स्वयम् को सही साबित करने की कोशिश उस ज़माने से करते आ रहे है
आज जब देश का युवा बदल रहा है तो उनमें धर्म की आड़ में चल रहे कुप्रथा से बाहर निकलने की छटपटाहट साफ देखी जा सकती है। ढाबे-बार से लेकर हर जगह में हर समाज के युवा दिखने लगे हैं। जो न केवल धर्म से परे एक दूसरे के साथ कांधे से कांधा मिलाकर चलते है बल्कि आपसी सहयोग के लिए भी तत्पर रहते हैं। वे अपने समाज में व्याप्त बुराईयों का खुलकर विरोध भी करते हैं।
ये अलग बात है कि सियासत उन्हें बार-बार वापस उनके अपने धर्म के साथ चिपकाये रखने के लिए एक माहौल बनाकर डराने की कोशिश करता है जिसके कारण वे सार्वजनिक रूप से कुप्रथाओं का विरोध नहीं करते।
जब श्रीलंका के चर्च में  हुए आतंकवादी घटना के बाद जब श्रीलंका सरकार ने हर तरह के परदे और बुरका पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की तो भारत में भी बुरका को लेकर राजनीति करने वालों को मौका मिल गया।
हिन्दू संगठन के लोग भारत में भी प्रतिबंध कर देने को लेकर चर्चा करने लगे तो यह मुसलमानों के कथित ठेकेदारों को धर्म पर हमला लगने लग गया और पहले ही गौ हत्या से लेकर तीन तलाक के रवैये से आहत मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भी इसके विरोध में उटपटांग बोलने लग गये।
जबकि इस पर कुछ करने की मोदी सरकार की कोई मंशा थी न ही सरकार की  तरफ से कोई बात ही हुई थी। जावेद अख्तर जैसे समझदार आदमी ने भी भाजपा विरोध के चलते कह दिया कि घुंघट पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए।
लेकिन सच तो यह है कि धार्मिक बंधन से हर धर्म के लोग आहत है और वे स्वयं इसकी बुराई करते रहते हैं लेकिन यदि दूसरे धर्म के लोग कुछ कहे तो वह धर्म पर हमले का मुद्दा बन जाता है। यह है सियासत।
उदाहरण के तौर पर मैं यहां बताना चाहता हूं कि मेरा एक परिचित रहमानिया चौक के पास रहता हैं मुझे अक्सर उसके घर जाने का मौका लगा रहता है और चूंकि उनके बेटियों से मेरी पत्नी का भी अच्छा जुड़ाव हो गया है तो वे भी घर आते जाते रहती है। उन्हें बुरका पहनते कभी नहीं देखा ।
जब इस पर विवाद शुरू हुआ तो मैने पूछ लिया कि आज तक बुरका पहने नहीं देखा तो नसरीन ने कहा केवल धार्मिक कार्यक्रमों में ही कभी कभी पहन लेते हैं।
मैने जब विवाद की बात बताई तो उसकी अम्मी ने कहा कि जमाना बदल गया है और यह सब गुजरे जमाने की बात है। वैसे भी कौन अपनी इच्छा से बुरका पहनना चाहता है।
जब मैंने बताया कि मेरे दोस्त सईद की अम्मी तो इसे जरूरी बताती है और वे बुरके की इतनी हिमायती है कि वे आज भी बुढ़ी हो जाने के बाद भी परदा करती है जबकि उनके उपर किसी तरह का दबाव नहीं है।
तो उसका जवाब था कि इसमें हैरान होने वाली क्या बात है कई लोगों को बंधन में रहते रहते उससे मुहब्बत हो जाती है और फिर वह उससे निकलने की सोच भी नहीं पाता।
यह बात मैने जब सूरज कुमार को बताई तो वह कहने लगा बंधन जितना मजबूत और कठोर होगा उसका दर्द उतना ज्यादा होगा लेकिन बंधन को हटाने पर यदि सजा निर्धारित किया जायेगा तो फिर बंधा हुआ आदमी अपने बंधन से प्यार करने लगेगा क्योंकि वह जानता है कि इस बंधन को खोलने का मतलब प्रताडि़त होना है।
तो कासिम ने कहा कि सूरज कुमार की सोच ही निराली है। सच तो यह है कि कोई भी व्यक्ति आज बंधकर नहीं रहना चाहता क्या घुंघटवालियों ने घुंघट हटा देने की कोशिश नहीं की है। उसी तरह बुरके वाली भी इस कोशिश में है और आजकल सब कुछ बदल रहा है जो बुरके या घुंघट में होती है वे भी पल्ला किनारे कर खुद को दिखाने की कोशिश करती है। परदा तो किसी भी स्त्री को पसंद नहीं है चाहे वह बदसूरत क्यों न हो।
अभी तक चुप-चाप हमारी बात सुन रहा अकिल अपनी आदत के अनुसार कहने लगा। मजहबी बातों का कोई मतलब नहीं हैं क्योंकि हमारे पास न तो इतना ज्ञान है और न ही अनुभव है। यदि किसी ने बुरके और घुंघट का चलन शुरू किया होगा तो इसका कोई तो मतलब रहा होगा।
अकिल के इस दलील ने हमको खामोश कर दिया क्योंकि इस पर आगे बात करने का मतलब अकिल की नाराजगी का शिकार होना था।

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