नफ़रत और प्यार -2
नफरत की राजनीति का ऐसे कई उदाहरण है। इनमें से कई देश को शर्मसार कर देने वाला है। चुनावों में विरोधी नेताओं की सभा और रैलियों मे जिस तरह से भाजपा कार्यकर्ताओं ने मोदी मोदी के नारे लगाकर बाधा डालने की कोशिश की है वह भी भारत के स्वस्थ चुनाव परम्परा के विपरित है और यह सब हंगामा खड़ा करने का मकसद यहीं माना जाए। सत्ता की ताकत होने के बाद तो उग्रता ही बढऩे लगी थी।
हालात यह होने लगा कि मोदी की आलोचना की ही नहीं जा सकती और जो भी मोदी सरकार की आलोचना करेगा उसकी खैर नहीं। आप समझ ही नहीं सकते कि उनकी सोच क्या करने जा रही है। ये इस देश के बहुधर्मी भाईचारे, एकता में अनेकता और संविधान सब कुछ समाप्त कर देना चाहते है। कमल के इस कथन पर भले ही संतोष जी को बुरा लगा लेकिन मैं कमल के इस तीखे तेवर से असहज हो गया था। आखिर संतोष जी की मैं बहुत इज्जत करता था और हमारे बीच कभी भी कोई भी चर्चा बहस के स्तर तक भी नहीं पहुंच सकी थी।
कमल बेहद आक्रोशित था। सुप्रीम कोर्ट के पांच पांच जज प्रेसवार्ता लेने सामने आ गये थे और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय था। लेकिन इस मामले में मोदी सरकार का रवैया सचमुच हैरान कर देने वाला था। लेकिन संतोष जी ने बड़ी ही सहजता से कहा था मुझे इसकी पूरी जानकारी नहीं है और ऐसा हुआ है तो इस पर सरकार को विचार करना चाहिए।
इस जवाब से कमल संतुष्ट नहीं था लेकिन मैने अपना हाथ कमल की जांघ पर रखते हुए हल्का सा दबाया ताकि वह चुप हो जाये और विषय को बदलते हुए पर्यावरण को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के रवैये पर कटाक्ष किया। मैं जानता था संतोष जी की पर्यावरण पसंदीदा विषय रहा है। फिर इसी पर चर्चा होते रही।
संतोष जी के जाने के बाद जब मैने कमल को उसकी उग्रता के बाबत इशारा किया तो वह मुझ पर ही फट पड़ा। कहने लगा देखना यह सरकार सब कुछ बर्बाद कर देगा। किसी भी संवैधानिक संस्थाओं को नहीं छोड़ेगा। सबकी विश्वसनीयता बर्बाद हो जायेगी। फिर इस देश में बचेगा क्या?
मैं समझ गया था कि कमल आज रूकने वाला नहीं है। इसलिए चुपचाप सिर हिलाते उसकी उन बातों पर भी मैं मौन रहा जिससे मैं असहमत था। हिन्दू राष्ट्र से लेकर सारे प्रमुख जगहों पर गुजरातियों को बिठाने या संविधान के मूलभूत अवधारणा को ही समाप्त करने की कमल के दावे से मैं सहमत नहीं था।
इस घटना के बाद कई दिनो तक कमल कॉफी हाऊस नहीं आया और जब आया तो अपने किये पर उसने संतोष जी से माफी मांग ली।
लेकिन मैं जानता था यह सब अभी खत्म नहीं हुआ है आगे भी चर्चा बहस में तब्दिल होकर गालीगलौच और हाथापाई तक पहुंच सकती है क्योंकि मोदी सरकार के रवैये को लेकर उनके समर्थक जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते थे या कर रहे थे वह कई बार असहनिय हो जाता था।
नफरत की राजनीति लोगों के दिलो दिमाग में इस कदर समा चुका था कि वे उस शेर की तरह हो गये थे जो स्वयं को अकेला ताकतवर राजा मानकर हर रोज घर बैठे भोजन के लिए एक मासूम जीवों को मारता था लेकिन यहां तो रोज कितने ही लोगों पर प्रहार हो रहा था। मुझे इस कहानी के आखरी किरदार उस खरगोश के आने का भी भरोसा था जो शेर को बहाने से कुए तक ले जाकर इस अत्याचार को समाप्त कर देता है।
यही वजह है कि शिक्षण संस्थाओ, सीबीआई, आरबीआई से लेकर सांख्यिकी विभाग के आंकड़े जारी नहीं करने के दबाव पर भी ज्यादा चर्चा नहीं करता था क्योंकि उन लोगों के सामने सारी चर्चा कोई मायने नहीं रखता था। संवैधानिक संस्थाओं के प्रहार पर भी वे हिन्दू राज आने का सपना देख रहे थे। उनकी दलील होती की सभी जगह भ्रष्टाचारी बैठे है, सभी जगह वामपंथी बैठे है। सफाई की जा रही है। हिन्दू राज का रास्ता साफ किया जा रहा है।
इस तरह की दलील पर मैं हंसकर चुप रह जाता था। मोदी समर्थकों के पास हर बात का जवाब होता था वे प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा, झूठ को भी राजनीति का हिस्सा बताते थे।
एक बार जब नरेन्द्र मोदी ने कहा कि गुरूनानक देव, गुरूगोरखनाथ और संत कबीर एक साथ बैठकर चर्चा करते थे। इतिहास को तो छोड़ दीजिए इस देश का सामान्य युवा भी जानता है कि तीनों के जन्म में सौ साल से अधिक का अंतर है लेकिन भाजपा या संघ से जुड़े लोग इस तरह की बात पर भी तर्क करने लग जाते थे। इक बार जब सिकन्दर को बिहार के लोगों ने नाको चना चबा देने की बात कही तो इस पर भी प्रणव जैसे होशियार माने जाने वाला व्यक्ति भी इसे सही ठहराने लगा था और पता नहीं किस-किस शासन तक बात ले गया।
मैं हैरान था कि आखिर देश के प्रधानमंत्री के झूठ और इतिहास की नासमझ पर कोई कैसे बचाव कर सकता है। लेकिन यह सब बड़ी बेशर्मी से हो रहा है।
मोदी है तो मुमकिन है का जुमला सर चढ़कर बोल रहा था। समर्थकों के लिए तो मोदी जैसे भगवान हो गये थे जिनसे कोई गलती हो ही नहीं सकती और यदि गलती हुई भी तो वह उसकी रणनीति का हिस्सा है।
ऐसा ही मामला राफेल विमान सौदे के समय का है। राफेल सौदा को लेकर जब नरेन्द्र मोदी पर सीधी उंगली उठने लगी तो शुरू में तो भक्तों की भी बोलती बंद हो गई लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री की तरफ से सौदे को क्लीनचीट देने की कोशिश हुई। बाफोर्स के बहाने हमले होने लगे।
ऐसे ही एक चर्चा के दौरान जब कमल ने कहा कि यदि सौदे में दलाली या कमीशनखोरी नहीं हुई है तो अंबानी को बगैर एक्सपिरेंस और जमीन के कैसे काम मिल गया। इस चूक को भी कोई समझने तैयार नहीं था। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब इस मामले को लेकर दायर याचिका को कैग की रिपोर्ट संसद पटल पर रखने के झूठ की वजह से खारिज करने की बात सामने आई तब भी कोई इसे गलत नहीं ठहरा रहा था यह अलग बात है कि सरकार ने याचिका खारिज होने के बाद कैग की रिपोर्ट संबंधी जानकारी को टंटक त्रुटि बताकर विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश करते हुए याचिका खारिज किये जाने को युद्ध जीतने जैसा प्रचारित किया।
जब हिन्दू के एन राम ने पूरे सौदे की खबर प्रसारित की तो सरकार के हाथ पांव भूल गए और पुर्नविचार याचिका के दौरान कोर्ट में फाईल चोरी होने और बाद में फोटो कॉपी चोरी होने जैसे दलील देकर स्वयं को बचाने की कोशिश करते रहे। लेकिन भले ही मोदी समर्थक इस मामले में मोदी को क्लीन चीट देते रहे लेकिन आम लोगों को लगने लग गया था कि दाल में काला जरूर है। नहीं तो सरकार कोर्ट में बहानेबाजी नहीं करती। यहां तक की संसद में पेश की गई रिपोर्ट में कीमत की जगह सांकेतिक भाषा के प्रयोग ने तो मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर ही दिया। लेकिन यह सब मोदी समर्थक कैसे पचा पाते इसलिए इन लोगों ने अपने नफरत की फैक्टरी से फिर नया प्रोडक्ट निकाला बोफार्स। और नरेन्द्र मोदी ने तो स्व. राजीव गांधी को देश का नम्बर वन भ्रष्टाचारी बता दिया। मोदी के बयान के बाद जब सब तरफ थूथू होने लगी तो भी नफरत का वार इस देश के मृतात्माओं पर किये जाने लगे और हालात गोडसे को देशभक्त बताने तक चलता रहा। यह आगे भी चलेगा। यह रूकेगा नहीं भले ही नरेन्द्र मोदी ने गोडसे को देशभक्त बताने वालो को माफ नहीं करने की बात कही लेकिन नफरत की फैक्टरी से प्यार की उम्मीद कैसे की जानी चाहिए।
इधर तीन तलाक को लेकर मोदी सरकार की रूचि को अकिल जैसे मुसलमानों ने राजनीति से जोड़ दिया था। लेकिन चर्चा का विषय तीन तलाक तक ही सीमित नहीं होते थे। क्योंकि जब चर्चा में राजनीति घुली हो तो ऐसे मसलों को भी उठाया जाता है जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो।
इसलिए उस दिन जब मुसलमानों के शराब पीने और धर्म परिवर्तन पर चर्चा करते हुए शरिअत कानून के विरोधाभास को उठाया तो करीम ने इस पर चर्चा ही बंद कर देने का सुझाव देते हुए ख़फ़ा हो गये। जबकि भाजपा या आरएसएस समर्थक बार बार वही मामले उठाते थे ताकि वे उन्हें जलील कर सके।
इस पर जब हासिम की राय पूछी गई तो उसने साफ कह दिया कि यह सब मानने न मानने का मामला है। बहुत से लोग शराब पीना या न पीना को धर्म से अलग रखते हैं लेकिन बहुत से लोग इसे धार्मिक मामला मानते हैं लेकिन वर्तमान में जब कई एलोपैथी दवाओं में शराब होता है तो फिर यह बहस या चर्चा का विषय ही नहीं रह गया है। मेरा तो यह मानना है कि धर्म को लेकर यदि शराब जैसी बुराईयों से दूर रखी जा सकती है तो इसमें बुराई क्या है।
इसी तरह धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दे को गैर जरूरी बताते हुए कहा कि दुनिया बदल चुकी है लोगों की जीवनशैली खानपान सब कुछ बदल गया है। धार्मिक कट्टरता की बात ही बेमानी है।
हमारे धर्म मे साफ कहां है कि क्योंकि काफिरो को स्वयं अल्लाह ने ही पथभ्रष्ट किया है। पवित्र कुरान कहता है कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है, यही मार्ग दिखाता है, तो (हे नबी) इन पर अफसोस करते करते तुम अपनी जान क्यों घोल रहे हो। नि:संदेह अल्लाह जानता है कि जो कुछ ये कर रहे है । नौशाद ने तो धर्म परिवर्तन और धर्म त्याग के प्रति रवैये में जो फर्क है उसे बताते हुए कहा कि जब कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके इस्लाम अपना लेता है तो वह अपने मूल धर्म का त्याग कर रहा होता है इसलिए उसके मूलधर्म की दृष्टि से वह धर्म त्यागी हुआ। लेकिन कोई भी मौलवी इसे एक क्षण ने लिए समर्थन नहीं करेगा कि उस दूसरे धर्म के धर्माधिकारियों को उस धर्म त्यागी को सजा देने का अधिकार है जबकि दूसरी तरफ कोई मुसलमान वापस अपने मूलधर्म को अपना लेता है तो उलमा का आग्रह होता है कि ऐसे व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाए। लेकिन आजकल मुसलमानों को उससे सभी संबंध तोड़ लेने का फरमान सुनाया जाता है।
वैसे नौशाद की यह खूबी थी कि वह गंभीर मसले पर भी हंसी मजाक करते हुए अपनी बात रख देता था या गंभीर चर्चा को हंसी मजाक में तब्दिल कर देता है।
नौशाद की इस बात पर जब अकिल खफा हुआ तो उसने नया मसला ही छेड़ दिया। कहने लगा कि कमल जी मुसलमान आजकल उलैंमा या फतवे की कितनी बात मानता है अब मेहमूद ने तो हनुमान मंदिर ही बना दिया तो दुर्गा मंडाल से लेकर गणेश पंडाल हो या दूसरे हिन्दू धार्मिक कार्यक्रम आजकल मुसलमान भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते है जबकि मंदिरों या दूसरे धर्म के धार्मिक कार्यक्रमों में मदद करना कुफ़्र है ।
अकील ने फिर कहा ये सब बात बंद कर तो नौशाद ने हंसते हंसते कह दिया मस्जिदों के लिए सीधे चंदा नहीं ले सकते यह नहीं चलेगा।
इस पर अकिल उठकर चला गया तो हासिम ने कहा मालूम भैया सारे विवाद की जड़ ये पंडित और मौलवी ही है जो खुद तो धर्म का पालन नहीं करते या फिर अपनी सुविधानुसार नियम कानून बनाते रहते है।
जबकि करीम तो यहां तक कहा कि हिन्दूस्तान में सामाजिक ताना बाना इतना मजबूत है कि कई बार तो हिन्दू, हिन्दू नहीं लगता और मुसलमान को मुसलमान नहीं देख पाओंगे। लेकिन राजनीति सब कुछ तहस नहस करने में लगा है। मुस्लिम
बुद्धिजीवियों ने धार्मिक डर से अपनी कमियों को देखने व उसे दूर करने की कोशिश ही नहीं की इसलिए राजनीति करने वालों को मौका मिला और वे लोग जहर बोने का काम किया। दरअसल मुसलमान अपने धर्म को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा है तो उन्हें आसानी से भड़काया जाता है। लेकिन धीरे धीरे यह बात मुसलमान भी समझने लगे है कि उनकी भावनाओं का किस तरह से राजनैतिक इस्तेमाल हो रहा है। वन्देमातरम, भारत माता की जय की बात हो या फिर अन्य दूसरे मामले जिससे मुसलमानों की छवि बिगाड़ाने को कोशिश में ही तूल दिया गया। जबकि एक आम मुसलमान को इससे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन चंद लोगों के विरोध या चंद लोगों ने जबरिया जबान में डालने की कोशिश ने राजनीति करने का मौका दे दिया।
यदि मुसलमान या हिन्दू गलत होते तो कबीरदास जी के पाहन पूर्जे भैरा खुदाय। की बात पर शांति रह पाता। सबने उनकी वाणी को स्वीकारा जबकि उन्होंने किसी भी धर्म को नहीं बख्शा। तब तक राकेश भी आ गया था। और उसने चर्चा को नया रूप देने की कोशिश करते हुए कह दिया कि इतना सामाजिक ताने बाने पर विश्वास है तो मुसलमान एक जगह क्यों रहते है। सामाजिक एकता का मिसाल कहने वाले साईबाबा में केवल हिन्दू ही जाते है मुस्लिम क्यों नहीं जाते।
राकेश के अचानक इस तरह के सवाल पर उत्तेजना फैल गई लेकिन अब तक खामोशी से सबकुछ सुन रहे मनिन्दर ने कहा अरे बेवकूफ मुसलमान ही नहीं इस देश के सारे अल्पसंख्यक समाज चाहे सिख हो, जैन हो या इसाई हो सभी एक समूह में ही रहते है तो इसकी वजह उनकी अपनी संस्कृति और धार्मिक कार्यक्रमों में अधिकाधिक सहभागिता रहे यह कोशिश है। लेकिन अब धीरे धीरे कई कालोनियों में इक्का दुक्का रहने लगे है और जहां तक मुसलमानों का सांई बाबा या दूसरे मंदिरों में जाने न जाने की बात है तो वह भी सियासी ज्यादा है। पूछलो हासिम अली अभी उज्जैन से महाकाल का दर्शन कर लौटे है तो मेहमूद कितने सालों से नवरात्र में डोंगरगढ़ जा रहा है। हर जगह अपनी शाखाई सोच घुसेडऩा बंद कर दे।
चूंकि मनिन्दर थोड़े उम्र दराज थे और उनकी इज्जत करते हो इसलिए चर्चा ही समाप्त हो गई।
वह रात मुझे आज भी याद है मैं और अकिल एक दोस्त के विवाह समारोह में वीआईपी रोड स्थित निरंजन धर्मशाला गये थे। लोग अपने अपने में मस्त विवाह समारोह की भव्यता पर चर्चा कर रहे थे।
जब से मोबाईल में सेल्फी का जमाना आया है आजकल विवाह समारोहों में भी सेल्फी जोन बनाया जाता है तो बच्चों ने मनोरंजन के लिए टेडीबीयर के रूप में सजे लोग होते है। हर तरफ से मेहमानों को समारोह में जोड़े रखने के नये नये उपक्रम किये जाते हैं। जात-पात न धर्म सब एक साथ समारोह का आनंद लेते हैं।
उस रात कितने ही लोगों से मुलाकात हुई। साल दो साल के बाद किसी से मिलने की खुशी का मैं बयान नहीं कर सकता।
अकील ऐसे ही मुलाकात के दौरान खाने की प्लेट उठा चुका था। वह मुझे भी बार-बार प्लेट उठाने के लिए कह रहा था लेकिन मैने साफ कह दिया कि मैं किसी पाटी में दाल रोटी सब्जी चावल खाने की बजाय आयता माल (पकवान या स्पेशल डिश) ही खाता हूं। दाल चावल सब्जी खाने कोई पार्टी में थोड़ी न आता है। मेरी बात का समर्थन करने कई लोग मौजूद थे। हम घूम घूम कर खा रहे थे। जो सभी लोग प्लेट पकड़े थे उनके प्लेट से भी उठा के खाया जा रहा था।
पाटी जितनी शानदार थी खाना भी उतना ही लजिज था। तरह तरह की रोशनी से पूरा समारोह स्थल की सजावट भी जानदार ही था। भोजन के बाद जब हम पार्किंग स्थल में पहुंचे और कुछ ने सिगरेट जला ली। दो सिगरेट को सब बारी बारी से पी रहे थे।
अचानक अकील ने बड़बड़ाया- कहां है हिन्दू मुस्लिम? फिर वह मुस्कुरा दिया। लेकिन कितनों ने उसकी बात को सुनी यह मैं नहीं बता सकता लेकिन जिन्होंने भी सुनी उन्होंने इसे तवज्जो नहीं दिया।
इसके बाद सब अलग अलग वहां से रवाना हो गये। अकिल और मैं भी । रास्ते में मैने पूछा अचानक तुम्हे क्यो हो गया था इतने दिनों बाद तो सब मिले थे। तुम हिन्दू मुस्लिम का मामला उठाकर पाटी का मजा क्यों किरकिरा करना चाहते थे जबकि विनय और मुकेश जैसे कट्टर भाजपाई भी वहां थे।
अकिल फिर मुस्कुराया और कहने लगा मेरा मजा किरकिरा करने का जरा भी मूड नहीं था। मैने विनय और मुकेश को ही सुनाने के लिए यह कहा था।
तुमने देखा हम सब किस तरह एक ही प्लेट में खा रहे थे, कैसे एक ही सिगरेट को बारी बारी से पी रहे थे। हममे से इस दौरान किसी ने नहीं सोचा कि वह हिन्दू है या मुस्लिम।
मैने कहा कि हिन्दू-मुस्लिम सियासी मामला है। रोजमर्रा की जिन्दगी इन सियासतबाजों की जिन्दगी से न केवल खूबसूरत है बल्कि अलग है। इसलिए कोई भी समझदार व्यक्ति इनके चंगुल में नहीं फंसता।
अकिल ने कहा, हां वही तो कह रहा हूं लेकिन फिर भी आग लगा दी जाती है। लोग उन्माद में आ जाते हैं।
मैने कहा दोनों तरफ से आग लगाने का खेल चलता रहेगा इस देश की पहचान ही यही है।
तब अकिल ने कहा था धार्मिक प्रथाएं एक ऐसी भावशून्य धर्मनिधि बनकर रह गई है जो हमारे अमन चैन में कभी भी बाधा खड़ा कर देती है। उसकी बातों का मर्म मैं समझ रहा था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि जिस खुशी और आनंद के पल को हम अभी अभी जी कर लौट रहे हैं उसका मजा किरकिरा हो जाए। इसलिए मैने चुप रहना ही बेहतर समझा। क्योंकि आस्था में किसी भी तरह के तर्क का कोई स्थान ही नहीं है।
हालात यह होने लगा कि मोदी की आलोचना की ही नहीं जा सकती और जो भी मोदी सरकार की आलोचना करेगा उसकी खैर नहीं। आप समझ ही नहीं सकते कि उनकी सोच क्या करने जा रही है। ये इस देश के बहुधर्मी भाईचारे, एकता में अनेकता और संविधान सब कुछ समाप्त कर देना चाहते है। कमल के इस कथन पर भले ही संतोष जी को बुरा लगा लेकिन मैं कमल के इस तीखे तेवर से असहज हो गया था। आखिर संतोष जी की मैं बहुत इज्जत करता था और हमारे बीच कभी भी कोई भी चर्चा बहस के स्तर तक भी नहीं पहुंच सकी थी।
कमल बेहद आक्रोशित था। सुप्रीम कोर्ट के पांच पांच जज प्रेसवार्ता लेने सामने आ गये थे और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय था। लेकिन इस मामले में मोदी सरकार का रवैया सचमुच हैरान कर देने वाला था। लेकिन संतोष जी ने बड़ी ही सहजता से कहा था मुझे इसकी पूरी जानकारी नहीं है और ऐसा हुआ है तो इस पर सरकार को विचार करना चाहिए।
इस जवाब से कमल संतुष्ट नहीं था लेकिन मैने अपना हाथ कमल की जांघ पर रखते हुए हल्का सा दबाया ताकि वह चुप हो जाये और विषय को बदलते हुए पर्यावरण को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के रवैये पर कटाक्ष किया। मैं जानता था संतोष जी की पर्यावरण पसंदीदा विषय रहा है। फिर इसी पर चर्चा होते रही।
संतोष जी के जाने के बाद जब मैने कमल को उसकी उग्रता के बाबत इशारा किया तो वह मुझ पर ही फट पड़ा। कहने लगा देखना यह सरकार सब कुछ बर्बाद कर देगा। किसी भी संवैधानिक संस्थाओं को नहीं छोड़ेगा। सबकी विश्वसनीयता बर्बाद हो जायेगी। फिर इस देश में बचेगा क्या?
मैं समझ गया था कि कमल आज रूकने वाला नहीं है। इसलिए चुपचाप सिर हिलाते उसकी उन बातों पर भी मैं मौन रहा जिससे मैं असहमत था। हिन्दू राष्ट्र से लेकर सारे प्रमुख जगहों पर गुजरातियों को बिठाने या संविधान के मूलभूत अवधारणा को ही समाप्त करने की कमल के दावे से मैं सहमत नहीं था।
इस घटना के बाद कई दिनो तक कमल कॉफी हाऊस नहीं आया और जब आया तो अपने किये पर उसने संतोष जी से माफी मांग ली।
लेकिन मैं जानता था यह सब अभी खत्म नहीं हुआ है आगे भी चर्चा बहस में तब्दिल होकर गालीगलौच और हाथापाई तक पहुंच सकती है क्योंकि मोदी सरकार के रवैये को लेकर उनके समर्थक जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते थे या कर रहे थे वह कई बार असहनिय हो जाता था।
नफरत की राजनीति लोगों के दिलो दिमाग में इस कदर समा चुका था कि वे उस शेर की तरह हो गये थे जो स्वयं को अकेला ताकतवर राजा मानकर हर रोज घर बैठे भोजन के लिए एक मासूम जीवों को मारता था लेकिन यहां तो रोज कितने ही लोगों पर प्रहार हो रहा था। मुझे इस कहानी के आखरी किरदार उस खरगोश के आने का भी भरोसा था जो शेर को बहाने से कुए तक ले जाकर इस अत्याचार को समाप्त कर देता है।
यही वजह है कि शिक्षण संस्थाओ, सीबीआई, आरबीआई से लेकर सांख्यिकी विभाग के आंकड़े जारी नहीं करने के दबाव पर भी ज्यादा चर्चा नहीं करता था क्योंकि उन लोगों के सामने सारी चर्चा कोई मायने नहीं रखता था। संवैधानिक संस्थाओं के प्रहार पर भी वे हिन्दू राज आने का सपना देख रहे थे। उनकी दलील होती की सभी जगह भ्रष्टाचारी बैठे है, सभी जगह वामपंथी बैठे है। सफाई की जा रही है। हिन्दू राज का रास्ता साफ किया जा रहा है।
इस तरह की दलील पर मैं हंसकर चुप रह जाता था। मोदी समर्थकों के पास हर बात का जवाब होता था वे प्रधानमंत्री की अमर्यादित भाषा, झूठ को भी राजनीति का हिस्सा बताते थे।
एक बार जब नरेन्द्र मोदी ने कहा कि गुरूनानक देव, गुरूगोरखनाथ और संत कबीर एक साथ बैठकर चर्चा करते थे। इतिहास को तो छोड़ दीजिए इस देश का सामान्य युवा भी जानता है कि तीनों के जन्म में सौ साल से अधिक का अंतर है लेकिन भाजपा या संघ से जुड़े लोग इस तरह की बात पर भी तर्क करने लग जाते थे। इक बार जब सिकन्दर को बिहार के लोगों ने नाको चना चबा देने की बात कही तो इस पर भी प्रणव जैसे होशियार माने जाने वाला व्यक्ति भी इसे सही ठहराने लगा था और पता नहीं किस-किस शासन तक बात ले गया।
मैं हैरान था कि आखिर देश के प्रधानमंत्री के झूठ और इतिहास की नासमझ पर कोई कैसे बचाव कर सकता है। लेकिन यह सब बड़ी बेशर्मी से हो रहा है।
मोदी है तो मुमकिन है का जुमला सर चढ़कर बोल रहा था। समर्थकों के लिए तो मोदी जैसे भगवान हो गये थे जिनसे कोई गलती हो ही नहीं सकती और यदि गलती हुई भी तो वह उसकी रणनीति का हिस्सा है।
ऐसा ही मामला राफेल विमान सौदे के समय का है। राफेल सौदा को लेकर जब नरेन्द्र मोदी पर सीधी उंगली उठने लगी तो शुरू में तो भक्तों की भी बोलती बंद हो गई लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री की तरफ से सौदे को क्लीनचीट देने की कोशिश हुई। बाफोर्स के बहाने हमले होने लगे।
ऐसे ही एक चर्चा के दौरान जब कमल ने कहा कि यदि सौदे में दलाली या कमीशनखोरी नहीं हुई है तो अंबानी को बगैर एक्सपिरेंस और जमीन के कैसे काम मिल गया। इस चूक को भी कोई समझने तैयार नहीं था। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब इस मामले को लेकर दायर याचिका को कैग की रिपोर्ट संसद पटल पर रखने के झूठ की वजह से खारिज करने की बात सामने आई तब भी कोई इसे गलत नहीं ठहरा रहा था यह अलग बात है कि सरकार ने याचिका खारिज होने के बाद कैग की रिपोर्ट संबंधी जानकारी को टंटक त्रुटि बताकर विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश करते हुए याचिका खारिज किये जाने को युद्ध जीतने जैसा प्रचारित किया।
जब हिन्दू के एन राम ने पूरे सौदे की खबर प्रसारित की तो सरकार के हाथ पांव भूल गए और पुर्नविचार याचिका के दौरान कोर्ट में फाईल चोरी होने और बाद में फोटो कॉपी चोरी होने जैसे दलील देकर स्वयं को बचाने की कोशिश करते रहे। लेकिन भले ही मोदी समर्थक इस मामले में मोदी को क्लीन चीट देते रहे लेकिन आम लोगों को लगने लग गया था कि दाल में काला जरूर है। नहीं तो सरकार कोर्ट में बहानेबाजी नहीं करती। यहां तक की संसद में पेश की गई रिपोर्ट में कीमत की जगह सांकेतिक भाषा के प्रयोग ने तो मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर ही दिया। लेकिन यह सब मोदी समर्थक कैसे पचा पाते इसलिए इन लोगों ने अपने नफरत की फैक्टरी से फिर नया प्रोडक्ट निकाला बोफार्स। और नरेन्द्र मोदी ने तो स्व. राजीव गांधी को देश का नम्बर वन भ्रष्टाचारी बता दिया। मोदी के बयान के बाद जब सब तरफ थूथू होने लगी तो भी नफरत का वार इस देश के मृतात्माओं पर किये जाने लगे और हालात गोडसे को देशभक्त बताने तक चलता रहा। यह आगे भी चलेगा। यह रूकेगा नहीं भले ही नरेन्द्र मोदी ने गोडसे को देशभक्त बताने वालो को माफ नहीं करने की बात कही लेकिन नफरत की फैक्टरी से प्यार की उम्मीद कैसे की जानी चाहिए।
इधर तीन तलाक को लेकर मोदी सरकार की रूचि को अकिल जैसे मुसलमानों ने राजनीति से जोड़ दिया था। लेकिन चर्चा का विषय तीन तलाक तक ही सीमित नहीं होते थे। क्योंकि जब चर्चा में राजनीति घुली हो तो ऐसे मसलों को भी उठाया जाता है जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो।
इसलिए उस दिन जब मुसलमानों के शराब पीने और धर्म परिवर्तन पर चर्चा करते हुए शरिअत कानून के विरोधाभास को उठाया तो करीम ने इस पर चर्चा ही बंद कर देने का सुझाव देते हुए ख़फ़ा हो गये। जबकि भाजपा या आरएसएस समर्थक बार बार वही मामले उठाते थे ताकि वे उन्हें जलील कर सके।
इस पर जब हासिम की राय पूछी गई तो उसने साफ कह दिया कि यह सब मानने न मानने का मामला है। बहुत से लोग शराब पीना या न पीना को धर्म से अलग रखते हैं लेकिन बहुत से लोग इसे धार्मिक मामला मानते हैं लेकिन वर्तमान में जब कई एलोपैथी दवाओं में शराब होता है तो फिर यह बहस या चर्चा का विषय ही नहीं रह गया है। मेरा तो यह मानना है कि धर्म को लेकर यदि शराब जैसी बुराईयों से दूर रखी जा सकती है तो इसमें बुराई क्या है।
इसी तरह धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दे को गैर जरूरी बताते हुए कहा कि दुनिया बदल चुकी है लोगों की जीवनशैली खानपान सब कुछ बदल गया है। धार्मिक कट्टरता की बात ही बेमानी है।
हमारे धर्म मे साफ कहां है कि क्योंकि काफिरो को स्वयं अल्लाह ने ही पथभ्रष्ट किया है। पवित्र कुरान कहता है कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है, यही मार्ग दिखाता है, तो (हे नबी) इन पर अफसोस करते करते तुम अपनी जान क्यों घोल रहे हो। नि:संदेह अल्लाह जानता है कि जो कुछ ये कर रहे है । नौशाद ने तो धर्म परिवर्तन और धर्म त्याग के प्रति रवैये में जो फर्क है उसे बताते हुए कहा कि जब कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके इस्लाम अपना लेता है तो वह अपने मूल धर्म का त्याग कर रहा होता है इसलिए उसके मूलधर्म की दृष्टि से वह धर्म त्यागी हुआ। लेकिन कोई भी मौलवी इसे एक क्षण ने लिए समर्थन नहीं करेगा कि उस दूसरे धर्म के धर्माधिकारियों को उस धर्म त्यागी को सजा देने का अधिकार है जबकि दूसरी तरफ कोई मुसलमान वापस अपने मूलधर्म को अपना लेता है तो उलमा का आग्रह होता है कि ऐसे व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाए। लेकिन आजकल मुसलमानों को उससे सभी संबंध तोड़ लेने का फरमान सुनाया जाता है।
वैसे नौशाद की यह खूबी थी कि वह गंभीर मसले पर भी हंसी मजाक करते हुए अपनी बात रख देता था या गंभीर चर्चा को हंसी मजाक में तब्दिल कर देता है।
नौशाद की इस बात पर जब अकिल खफा हुआ तो उसने नया मसला ही छेड़ दिया। कहने लगा कि कमल जी मुसलमान आजकल उलैंमा या फतवे की कितनी बात मानता है अब मेहमूद ने तो हनुमान मंदिर ही बना दिया तो दुर्गा मंडाल से लेकर गणेश पंडाल हो या दूसरे हिन्दू धार्मिक कार्यक्रम आजकल मुसलमान भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते है जबकि मंदिरों या दूसरे धर्म के धार्मिक कार्यक्रमों में मदद करना कुफ़्र है ।
अकील ने फिर कहा ये सब बात बंद कर तो नौशाद ने हंसते हंसते कह दिया मस्जिदों के लिए सीधे चंदा नहीं ले सकते यह नहीं चलेगा।
इस पर अकिल उठकर चला गया तो हासिम ने कहा मालूम भैया सारे विवाद की जड़ ये पंडित और मौलवी ही है जो खुद तो धर्म का पालन नहीं करते या फिर अपनी सुविधानुसार नियम कानून बनाते रहते है।
जबकि करीम तो यहां तक कहा कि हिन्दूस्तान में सामाजिक ताना बाना इतना मजबूत है कि कई बार तो हिन्दू, हिन्दू नहीं लगता और मुसलमान को मुसलमान नहीं देख पाओंगे। लेकिन राजनीति सब कुछ तहस नहस करने में लगा है। मुस्लिम
बुद्धिजीवियों ने धार्मिक डर से अपनी कमियों को देखने व उसे दूर करने की कोशिश ही नहीं की इसलिए राजनीति करने वालों को मौका मिला और वे लोग जहर बोने का काम किया। दरअसल मुसलमान अपने धर्म को लेकर कुछ ज्यादा ही संजीदा है तो उन्हें आसानी से भड़काया जाता है। लेकिन धीरे धीरे यह बात मुसलमान भी समझने लगे है कि उनकी भावनाओं का किस तरह से राजनैतिक इस्तेमाल हो रहा है। वन्देमातरम, भारत माता की जय की बात हो या फिर अन्य दूसरे मामले जिससे मुसलमानों की छवि बिगाड़ाने को कोशिश में ही तूल दिया गया। जबकि एक आम मुसलमान को इससे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन चंद लोगों के विरोध या चंद लोगों ने जबरिया जबान में डालने की कोशिश ने राजनीति करने का मौका दे दिया।
यदि मुसलमान या हिन्दू गलत होते तो कबीरदास जी के पाहन पूर्जे भैरा खुदाय। की बात पर शांति रह पाता। सबने उनकी वाणी को स्वीकारा जबकि उन्होंने किसी भी धर्म को नहीं बख्शा। तब तक राकेश भी आ गया था। और उसने चर्चा को नया रूप देने की कोशिश करते हुए कह दिया कि इतना सामाजिक ताने बाने पर विश्वास है तो मुसलमान एक जगह क्यों रहते है। सामाजिक एकता का मिसाल कहने वाले साईबाबा में केवल हिन्दू ही जाते है मुस्लिम क्यों नहीं जाते।
राकेश के अचानक इस तरह के सवाल पर उत्तेजना फैल गई लेकिन अब तक खामोशी से सबकुछ सुन रहे मनिन्दर ने कहा अरे बेवकूफ मुसलमान ही नहीं इस देश के सारे अल्पसंख्यक समाज चाहे सिख हो, जैन हो या इसाई हो सभी एक समूह में ही रहते है तो इसकी वजह उनकी अपनी संस्कृति और धार्मिक कार्यक्रमों में अधिकाधिक सहभागिता रहे यह कोशिश है। लेकिन अब धीरे धीरे कई कालोनियों में इक्का दुक्का रहने लगे है और जहां तक मुसलमानों का सांई बाबा या दूसरे मंदिरों में जाने न जाने की बात है तो वह भी सियासी ज्यादा है। पूछलो हासिम अली अभी उज्जैन से महाकाल का दर्शन कर लौटे है तो मेहमूद कितने सालों से नवरात्र में डोंगरगढ़ जा रहा है। हर जगह अपनी शाखाई सोच घुसेडऩा बंद कर दे।
चूंकि मनिन्दर थोड़े उम्र दराज थे और उनकी इज्जत करते हो इसलिए चर्चा ही समाप्त हो गई।
वह रात मुझे आज भी याद है मैं और अकिल एक दोस्त के विवाह समारोह में वीआईपी रोड स्थित निरंजन धर्मशाला गये थे। लोग अपने अपने में मस्त विवाह समारोह की भव्यता पर चर्चा कर रहे थे।
जब से मोबाईल में सेल्फी का जमाना आया है आजकल विवाह समारोहों में भी सेल्फी जोन बनाया जाता है तो बच्चों ने मनोरंजन के लिए टेडीबीयर के रूप में सजे लोग होते है। हर तरफ से मेहमानों को समारोह में जोड़े रखने के नये नये उपक्रम किये जाते हैं। जात-पात न धर्म सब एक साथ समारोह का आनंद लेते हैं।
उस रात कितने ही लोगों से मुलाकात हुई। साल दो साल के बाद किसी से मिलने की खुशी का मैं बयान नहीं कर सकता।
अकील ऐसे ही मुलाकात के दौरान खाने की प्लेट उठा चुका था। वह मुझे भी बार-बार प्लेट उठाने के लिए कह रहा था लेकिन मैने साफ कह दिया कि मैं किसी पाटी में दाल रोटी सब्जी चावल खाने की बजाय आयता माल (पकवान या स्पेशल डिश) ही खाता हूं। दाल चावल सब्जी खाने कोई पार्टी में थोड़ी न आता है। मेरी बात का समर्थन करने कई लोग मौजूद थे। हम घूम घूम कर खा रहे थे। जो सभी लोग प्लेट पकड़े थे उनके प्लेट से भी उठा के खाया जा रहा था।
पाटी जितनी शानदार थी खाना भी उतना ही लजिज था। तरह तरह की रोशनी से पूरा समारोह स्थल की सजावट भी जानदार ही था। भोजन के बाद जब हम पार्किंग स्थल में पहुंचे और कुछ ने सिगरेट जला ली। दो सिगरेट को सब बारी बारी से पी रहे थे।
अचानक अकील ने बड़बड़ाया- कहां है हिन्दू मुस्लिम? फिर वह मुस्कुरा दिया। लेकिन कितनों ने उसकी बात को सुनी यह मैं नहीं बता सकता लेकिन जिन्होंने भी सुनी उन्होंने इसे तवज्जो नहीं दिया।
इसके बाद सब अलग अलग वहां से रवाना हो गये। अकिल और मैं भी । रास्ते में मैने पूछा अचानक तुम्हे क्यो हो गया था इतने दिनों बाद तो सब मिले थे। तुम हिन्दू मुस्लिम का मामला उठाकर पाटी का मजा क्यों किरकिरा करना चाहते थे जबकि विनय और मुकेश जैसे कट्टर भाजपाई भी वहां थे।
अकिल फिर मुस्कुराया और कहने लगा मेरा मजा किरकिरा करने का जरा भी मूड नहीं था। मैने विनय और मुकेश को ही सुनाने के लिए यह कहा था।
तुमने देखा हम सब किस तरह एक ही प्लेट में खा रहे थे, कैसे एक ही सिगरेट को बारी बारी से पी रहे थे। हममे से इस दौरान किसी ने नहीं सोचा कि वह हिन्दू है या मुस्लिम।
मैने कहा कि हिन्दू-मुस्लिम सियासी मामला है। रोजमर्रा की जिन्दगी इन सियासतबाजों की जिन्दगी से न केवल खूबसूरत है बल्कि अलग है। इसलिए कोई भी समझदार व्यक्ति इनके चंगुल में नहीं फंसता।
अकिल ने कहा, हां वही तो कह रहा हूं लेकिन फिर भी आग लगा दी जाती है। लोग उन्माद में आ जाते हैं।
मैने कहा दोनों तरफ से आग लगाने का खेल चलता रहेगा इस देश की पहचान ही यही है।
तब अकिल ने कहा था धार्मिक प्रथाएं एक ऐसी भावशून्य धर्मनिधि बनकर रह गई है जो हमारे अमन चैन में कभी भी बाधा खड़ा कर देती है। उसकी बातों का मर्म मैं समझ रहा था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि जिस खुशी और आनंद के पल को हम अभी अभी जी कर लौट रहे हैं उसका मजा किरकिरा हो जाए। इसलिए मैने चुप रहना ही बेहतर समझा। क्योंकि आस्था में किसी भी तरह के तर्क का कोई स्थान ही नहीं है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें