काफ़ी हाउस-2

यह अजीब पर सच है कि इस शहर ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ इस दौर में भी अपनी सामाजिक ताना-बाना के साथ निर्विवाद रूप से खड़ा है। पिछले तीस सालों से इस शहर ने भाजपा को असीम प्यार दिया तो कांग्रेस में भी उम्मीद बनाये रखी। चुनाव के दिनों की छोड़ भाजपा और कांग्रेस से जुड़े लोगों में वह कटुता कभी नहीं रही जिससे शहर के सौहार्द को बिगाड़ा जा सके। यह अलग बात है कि कुछ लोग इस ताना-बाना को नापसंद करते रहे और अपने-अपने तरीके से ऐसे मामलों को धांिर्मक रंग देने की कोशिश करते रहे।
असलम और मुकेश भाई अक्सर कहा करते थे। हमारा प्यार पता नहीं कब तक उनके नफरत के आगे टिका रह पायेगा। वंदे मातरम् या भारत माता की जय से किसे इंकार है। प्रभु राम का मंदिर अयोध्या में बने यह भी किसी को इंकार नही  है। जनगणमन तो आज भी स्कूलों में एक साथ गाया जाता है।
उनके इस सवाल पर अक्सर मैं मुस्कुरा कर रहा जाता था। मुझे यह बात ही बेमानी लगती । इसलिए मैं केवल इतना कह देता था। चौकस रहा करों इस शहर का माहौल खराब न होने पाये। अफवाहें अक्सर लोगों को जला देती है और दधिचि का वह त्याग सुनाते हुए कहता था यदि एैसा सच जो इस शहर को आग में झोंक दे तो उसे मर जाने देना ही बेहतर होगा क्योंकि वह सच किसी वहशी पागल या सत्ता लोभी का किया धरा हो सकता है।
लेकिन मेरे इस जवाब से मैं स्वयं बुहत ज्यादा आश्वस्त नहीं हो पाता था। भीतर ही भीतर स्वयं को कमजोर पाता था।
मै यह कैसे इंकार कर दूं कि राजनीति किस कदर लोगों के दिलों दिमाग को बदलना चाहती है। जाति-धर्म, राष्ट्रबाद के नाम पर शहद में डुबाई कड़वी गोली जिस तरह से लोगों को धीरे-धीरे खिलाया जा रहा है उसका असर तो देर सबेर होना ही है।
यह अजीब पर सच है कि इस शहर ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ इस दौर में भी अपनी सामाजिक ताना-बाना के साथ निर्विवाद रूप से खड़ा है। पिछले तीस सालों से इस शहर ने भाजपा को असीम प्यार दिया तो कांग्रेस में भी उम्मीद बनाये रखी। चुनाव के दिनों की छोड़ भाजपा और कांग्रेस से जुड़े लोगों में वह कटुता कभी नहीं रही जिससे शहर के सौहार्द को बिगाड़ा जा सके। यह अलग बात है कि कुछ लोग इस ताना-बाना को नापसंद करते रहे और अपने-अपने तरीके से ऐसे मामलों को धांिर्मक रंग देने की कोशिश करते रहे।
असलम और मुकेश भाई अक्सर कहा करते थे। हमारा प्यार पता नहीं कब तक उनके नफरत के आगे टिका रह पायेगा। वंदे मातरम् या भारत माता की जय से किसे इंकार है। प्रभु राम का मंदिर अयोध्या में बने यह भी किसी को इंकार नही  है। जनगणमन तो आज भी स्कूलों में एक साथ गाया जाता है।
उनके इस सवाल पर अक्सर मैं मुस्कुरा कर रहा जाता था। मुझे यह बात ही बेमानी लगती । इसलिए मैं केवल इतना कह देता था। चौकस रहा करों इस शहर का माहौल खराब न होने पाये। अफवाहें अक्सर लोगों को जला देती है और दधिचि का वह त्याग सुनाते हुए कहता था यदि एैसा सच जो इस शहर को आग में झोंक दे तो उसे मर जाने देना ही बेहतर होगा क्योंकि वह सच किसी वहशी पागल या सत्ता लोभी का किया धरा हो सकता है।
लेकिन मेरे इस जवाब से मैं स्वयं बुहत ज्यादा आश्वस्त नहीं हो पाता था। भीतर ही भीतर स्वयं को कमजोर पाता था।
मै यह कैसे इंकार कर दूं कि राजनीति किस कदर लोगों के दिलों दिमाग को बदलना चाहती है। जाति-धर्म, राष्ट्रबाद के नाम पर शहद में डुबाई कड़वी गोली जिस तरह से लोगों को धीरे-धीरे खिलाया जा रहा है उसका असर तो देर सबेर होना ही है।
और यह असर एक निश्चित समय बाद खुलकर अपना रंग दिखाने लगा था। उस बूढ़े शेर की तरह जो शिकार के लिए सोने के कड़े का लालच देकर लोगों को दलदल में फंसा कर उसकी जान ले लेता है।
क्या हम उस शेर की चाल को समझ पा रहे है। आज जब पैसा परिवार ऐश्वर्य और मजेदार जिन्दगी ही जीवन की जरूरत हो गई है तब शेर के उस सोने के कड़े से मुंह मोड़कर कितने लोग जा सकते हैं।
सवाल यह नहीं था कि राजनीतिक सत्ता किसकी होगी बल्कि सवाल यह था कि आखिर राजनीतिक सत्ता के लिए क्या कुछ खोना पड़ेगा।
यही वजह है कि सत्ता के लिए जाति धर्म और राष्ट्रवाद का ऐसा सुनहरा कड़े दिखावे जाते है जिससे भले ही कुछ लोगों को तात्कालीन लाभ हो जाए लेकिन इस देश का ताना-बाना तो समाप्त हो ही जायेगा।
मुकेश ने कितनी बार कहा कि देखो आप किसी भी दल का समर्थन करो लेकिन ऐसी कोई बात मत करो जिससे हम एक-दूसरे का मुंह देखना दिखाना बंद कर दे। आखिर वक्त पर काम हम ही एक दूसके के आयेंगे।
लेकिन राकेश-सुनील या विनय यह बात सुनने को तैयार ही नहीं था। उन पर राष्ट्रवाद का भूत सर चढ़कर बोलने लगा था। वे बहस में अपनी भाषा की मर्यादा तक लांधने लगे थे। चम्मच तलवा चाटु और यहां तक कि डीएनए टेस्ट तक की बात करने लगे थे।
हद तो तब हो गई जब उरी हमले के बाद पाक दल में आई एसआई के सदस्य के शामिल होने पर की जा रही आपत्ति पर विनय ने मुकेश को देशद्रोही कह दिया। लेकिन मुकेश ने इसे हंस कर टाल दिया लेकिन साथ बैठे अन्य लोग असहज हो गये थे। मामला तुल पकड़ चुका था। विनय की अनदेखी होने लगी थी। कितने ही लोग उससे दूरी बनाने लगे थे तो वह खिल्ली उड़ाने लगा था। बेहद प्यार भरे नाम भी बेहद गंदे और वाहियात रूप अखितयार करने लगा था।
देश के बंटवारे का दौर तो मैने नहीं देखा लेकिन मौजूदा हालात मुझे उसी तरह के इशारे कर रहे थे। कोई भी एक-दूसरे को समझने को तैयार नहीं था या तो लोग प्रो मोदी को या एंटी मोदी। कॉफी का बंटवारा करते करते इन लोगों ने एक-दूसरे को आपस में बांट लिया था।
खानपान से लेकर पहनावे तक पर बंटवारा साफ दिखने लगा था। एक पक्ष गाय खाने को लेकर प्रतिवाद करता तो दूसरा सड़क पर घुमती पॉलीथीन खाती गायों के रखरखाव पर बहस छेड़ देता। अकिल ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि अब तो उसके खेतों की फसल चरती गाय बैल को भगाने से भी डर लगता है।
अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इसी तरह की खबरों की भरमार होती थी। कौन दोषी है कौन निर्दोष है। खैर यह सब तमाम तरह के पागलपनों का दौर था।
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही तबाही का दौर शुरू हो गया। तपती गर्मी अप्रैल मई का महिना से ज्यादा आग तो लोगों के मुंह से निकलने लगे थे। सामाजिक सौहद्रर्य की बातों का मतलब ज्यादा खतरनाक हो चला था।
साफ-साफ कहूं तो हर कोई अकेला होने लगा था लेकिन कोई भी इस सच को मानने को तैयार नहीं था कि देश संविधान से चलता है और संवैधानिक ढांचे को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट हो या विश्वविद्यालय, सीबीआई हो या आयकर या फिर सांख्यिकी विभाग सब को चौराहे पर लाकर तमाशा बना दिया गया है।
महिने दो महिने में कॉफी हाउस आने वाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर सालों के इस मिलन स्थली या दोस्ती में आखिर दरार क्यों पड़ गया। क्यों कोई अपने कहे से शार्मिन्दा नहीं है। क्या शर्मिन्दा भी काफी हाऊस के इस टेबल की तरह हो गई जो स्थायी है।
यह दौर गलतियों पर शर्मिन्दा होने की बजाय उल्टा चोर कोतवाल को डांटे का है और इस दौर में सत्ता पर ऐसा मुलम्मा चढ़ाया गया जो भीतर से भी सोने-चांदी का ही लगे जबकि भीतर पूरी तरह से खोखला था और उसमें धर्म और जाति के कीड़े बुलबुलाते थे जिसकी ध्वनि कर्कश होते हुए भी कुछ लोगों को इसलिए मधुर लगने लगा था क्योंकि उसमें उनका स्वार्थ था लेकिन तकलीफ यह थी कि वे उन्हें भी इस कर्कश को मधुर लग रहा है कहां कहते थे जो नोटबंदी की वजह से नौकरी गंवा बैठे थे या जीएसटी के चलते उन्हें परिवार चलाना मुश्किल हो गया था या जो लोकतंत्र की हो रही हत्या से भीतर ही भीतर सुलगते थे।
और यह असर एक निश्चित समय बाद खुलकर अपना रंग दिखाने लगा था। उस बूढ़े शेर की तरह जो शिकार के लिए सोने के कड़े का लालच देकर लोगों को दलदल में फंसा कर उसकी जान ले लेता है।
क्या हम उस शेर की चाल को समझ पा रहे है। आज जब पैसा परिवार ऐश्वर्य और मजेदार जिन्दगी ही जीवन की जरूरत हो गई है तब शेर के उस सोने के कड़े से मुंह मोड़कर कितने लोग जा सकते हैं।
सवाल यह नहीं था कि राजनीतिक सत्ता किसकी होगी बल्कि सवाल यह था कि आखिर राजनीतिक सत्ता के लिए क्या कुछ खोना पड़ेगा।
यही वजह है कि सत्ता के लिए जाति धर्म और राष्ट्रवाद का ऐसा सुनहरा कड़े दिखावे जाते है जिससे भले ही कुछ लोगों को तात्कालीन लाभ हो जाए लेकिन इस देश का ताना-बाना तो समाप्त हो ही जायेगा।
मुकेश ने कितनी बार कहा कि देखो आप किसी भी दल का समर्थन करो लेकिन ऐसी कोई बात मत करो जिससे हम एक-दूसरे का मुंह देखना दिखाना बंद कर दे। आखिर वक्त पर काम हम ही एक दूसके के आयेंगे।
लेकिन राकेश-सुनील या विनय यह बात सुनने को तैयार ही नहीं था। उन पर राष्ट्रवाद का भूत सर चढ़कर बोलने लगा था। वे बहस में अपनी भाषा की मर्यादा तक लांधने लगे थे। चम्मच तलवा चाटु और यहां तक कि डीएनए टेस्ट तक की बात करने लगे थे।
हद तो तब हो गई जब उरी हमले के बाद पाक दल में आई एसआई के सदस्य के शामिल होने पर की जा रही आपत्ति पर विनय ने मुकेश को देशद्रोही कह दिया। लेकिन मुकेश ने इसे हंस कर टाल दिया लेकिन साथ बैठे अन्य लोग असहज हो गये थे। मामला तुल पकड़ चुका था। विनय की अनदेखी होने लगी थी। कितने ही लोग उससे दूरी बनाने लगे थे तो वह खिल्ली उड़ाने लगा था। बेहद प्यार भरे नाम भी बेहद गंदे और वाहियात रूप अखितयार करने लगा था।
देश के बंटवारे का दौर तो मैने नहीं देखा लेकिन मौजूदा हालात मुझे उसी तरह के इशारे कर रहे थे। कोई भी एक-दूसरे को समझने को तैयार नहीं था या तो लोग प्रो मोदी को या एंटी मोदी। कॉफी का बंटवारा करते करते इन लोगों ने एक-दूसरे को आपस में बांट लिया था।
खानपान से लेकर पहनावे तक पर बंटवारा साफ दिखने लगा था। एक पक्ष गाय खाने को लेकर प्रतिवाद करता तो दूसरा सड़क पर घुमती पॉलीथीन खाती गायों के रखरखाव पर बहस छेड़ देता। अकिल ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि अब तो उसके खेतों की फसल चरती गाय बैल को भगाने से भी डर लगता है।
अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इसी तरह की खबरों की भरमार होती थी। कौन दोषी है कौन निर्दोष है। खैर यह सब तमाम तरह के पागलपनों का दौर था।
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही तबाही का दौर शुरू हो गया। तपती गर्मी अप्रैल मई का महिना से ज्यादा आग तो लोगों के मुंह से निकलने लगे थे। सामाजिक सौहद्रर्य की बातों का मतलब ज्यादा खतरनाक हो चला था।
साफ-साफ कहूं तो हर कोई अकेला होने लगा था लेकिन कोई भी इस सच को मानने को तैयार नहीं था कि देश संविधान से चलता है और संवैधानिक ढांचे को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट हो या विश्वविद्यालय, सीबीआई हो या आयकर या फिर सांख्यिकी विभाग सब को चौराहे पर लाकर तमाशा बना दिया गया है।
महिने दो महिने में कॉफी हाउस आने वाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर सालों के इस मिलन स्थली या दोस्ती में आखिर दरार क्यों पड़ गया। क्यों कोई अपने कहे से शार्मिन्दा नहीं है। क्या शर्मिन्दा भी काफी हाऊस के इस टेबल की तरह हो गई जो स्थायी है।
यह दौर गलतियों पर शर्मिन्दा होने की बजाय उल्टा चोर कोतवाल को डांटे का है और इस दौर में सत्ता पर ऐसा मुलम्मा चढ़ाया गया जो भीतर से भी सोने-चांदी का ही लगे जबकि भीतर पूरी तरह से खोखला था और उसमें धर्म और जाति के कीड़े बुलबुलाते थे जिसकी ध्वनि कर्कश होते हुए भी कुछ लोगों को इसलिए मधुर लगने लगा था क्योंकि उसमें उनका स्वार्थ था लेकिन तकलीफ यह थी कि वे उन्हें भी इस कर्कश को मधुर लग रहा है कहां कहते थे जो नोटबंदी की वजह से नौकरी गंवा बैठे थे या जीएसटी के चलते उन्हें परिवार चलाना मुश्किल हो गया था या जो लोकतंत्र की हो रही हत्या से भीतर ही भीतर सुलगते थे।

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